मंगलवार, 9 अगस्त 2011

हवा की हिनहिनाहट और भूरी आँख वाला कुत्ता


 

                                              Myself
.......और इस तरह  कविता, कहानी और कमरे से बाहर निकलकर वो एक ऐसी जगह पहुँच गया, जंहा दूर दूर तक इतना अकेलापन था की उसके अकेलेपन ने घबराकर आत्महत्या कर ली फिर अचानक ही हवा भी तेज़ होकर बहने लगी . जून की शामों में ऐसी हवा किसी लड़की को अपने देह से चिपटाने जैसा सुख देती है .

- तुझे नहीं लगता की तू बहुत बेकार आदमी है ,और तुझे मर जाना चाहिए .
- हा..हा...हा.....हाँ मै भी अक्सर ऐसा सोचता हूँ, इस ख़याल से ही अपने ऊपर प्यार उमड़ आता है , और फिर सोचने भर ही से आज तक कौन कम्बख्त मरा होगा .
- मुझे तो तेरी शक्ल से ही ऊब होती है ,पता नहीं लोग तुझे किस तरह बर्दाश्त करते होंगे .
- ये जानकर मुझे क्या करना.
       (चुप्पी)
- कहते हैं की भूरी आँख वाले बड़े कमीने होते हैं .
- सो तो मै हूँ .
       (चुप्पी)
- पर माँ की आँखे भी तो भूरी थीं .
- हाँ... पर वो कमीनी नहीं थीं .
- तू ये यकीन से कैसे कह सकता है?
- क्यूंकि पिताजी की आँखों का रंग काला था.
- वाह... इस बात में भला क्या तर्क है?
- मेरी आँखों का रंग भूरा होने में ही क्या तर्क है?
- ह्म्म्म...
        (चुप्पी)
- पर ये बात तो पक्की है की भूरी आँखों वाले कमीने होते हैं .
- हाँ , मेरे कमीने होने में मुझे कोई शक नहीं .
        (चुप्पी)
- तुझे क्या लगता है ,क्या पिताजी को माँ से प्रेम था ?
- पिताजी घुड़सवार थे .
- और माँ?? क्या माँ को उनसे प्यार था??
- माँ को अपनी हिनहिनाहट से प्यार था , शायद उन्हें आदत हो चुकी थी...या फिर..पता नहीं ...
       (चुप्पी)
- फिर प्यार क्या है ?
- प्यार ?? हा हा...हा.........प्यार ,कुतुबमीनार के बिलकुल ऊपर चढ़कर नीचे झाँकने जैसा कुछ है . 
- मतलब ?
- मतलब की डर और रोमांच ,आशा और आशंका ....प्यार का मतलब है हमेशा ऊंचाई के बिलकुल किनारे खड़े रहना, गिरने और नहीं गिरने के बीच घडी के पेंडुलम की तरह डोलते हुए...
       (चुप्पी)
- तू नहीं चढ़ा कभी कुतुबमीनार पर ?
- मै एफिल टावर पर चढ़ना चाहता हूँ .
- इससे क्या फर्क पड़ता है?
- ऊँचाई का फर्क , और फिर मै हमेशा से ही बहुत लालची रहा हूँ . बहुत ऊँचाई से बहुत नीला आसमान और और दूर तक हरी धरती दिखाई देगी. वरना तो कुर्सी ,टेबल के किनारे भी खड़ा रहा जा सकता है पर उसमे वो डर और         रोमांच नहीं .
- क्या बकवास है.
- अबे गधे इसीलिए कहता हूँ ये सब छोड़ और उधर देख ऊपर उन चिड़ियों को .......साले ...कैसे कुत्तों जैसे उड़ते हैं.
- पर चिड़िया तो मादा होती है.
- तू क्या है?
- मै 'तू' हूँ.
- और मै क्या हूँ?
- तू कुत्ता है .
- और नर भी हूँ ?
- हाँ.
-फिर अगर मै चिड़िया हो जाना चाहता हूँ तो इसमें बुराई  क्या है?
- कुछ नहीं .

कुछ नहीं, उसने अपने अकेलेपन की लाश को पीठ पर लादा और वापस कविता ,कहानी और कमरे की तरफ लौट पड़ा ,हवा ने थककर हाथ पाँव पटकने बंद कर दिए थे अब वो बगल से गुज़रती लड़की को सूंघ लेने भर जितना सुख था.  

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें