शनिवार, 23 जून 2012

मिट्ठू



बहुत छोटे शहरों की दुपहरें बहुत लंबी हुआ करती हैं और अगर छुट्टियों के दिन हों तो आप इन दुपहरों को सिर्फ सुन सकते हैं घर में बंद रहते हुए, कम से कम मेरी उम्र की मज़बूरी यही थी , इसलिए मै दोपहर भर लेटे लेटे इन आवाजों से दोपहर की तस्वीर बनाता रहता, अभी जो गुज़रा वो फैजाबाद की चुडियां बेचता फेरीवाला है थोड़ी देर में टिफिन के डब्बे खडखडाता हुआ बंधू सोनी गुजरेगा वो सिविल लेन के सारे दफ्तरों में टिफिन पहुंचाता है फिर बर्फ वाला भोंपू बजाता हुआ और बीच बीच में मेहर चाचा की नशे में डूबी आवाज़ सुनाई  देती रहेगी मेहर चाचा सुबह से पीना शुरू करते हैं और रात तक पीते हैं वो हमारे घर के सामने वाली सड़क के उस पार रहते हैं  हर दो तीन  साल में एक नई चाची ले आते हैं और साल पूरा होने से पहले ही वो किसी और के साथ भाग जाती है.

मेहर चाचा बहुत अकेले हैं और उन्हें कसबे के सब लोग मेहरारू मरान सिंग कहकर बुलाते हैं और तब वो हँसते हुए नशे में कोई गीत गाकर जवाब देते हैं पता नहीं क्यूँ उस वक्त वो और भी अकेले दिखाई देते हैं.. वैसे बहुत सी बातें तब मुझे नहीं पता थीं दरअसल उन दिनों मै बहुत छोटा था अगर कहूँ की उस दोपहर के दिन तक मै बहुत छोटा था तो ज्यादा सही होगा. और  देखा जाए तो सही कुछ भी नहीं था पिताजी की सख्त हिदायत थी की मै दोपहर बाहर नहीं निकल सकता और मुझे ज़बरदस्ती ही सोने की बेकार कोशिश करते हुए दोपहर काटना होता था .मै माँ को बताता रहता की चिंटू कितना बुद्धू है और माँ मुझे राजकुमार और राक्षस की कहानियां सुनाती , माँ की कहानियों में हमेशा एक राजकुमारी भी होती थी जिसकी कितनी खूबसूरत थी की कल्पना मेरे कल्पना पर निर्भर था मेरी कहानियों में मै माँ को सिर्फ चिंटू ,बिट्टू और गोलू की बेवकूफियां ही गिनाता और मिट्ठू से जुडी बातें गोल कर जाता, क्यूँ ? पता नहीं.

"माँ क्या शादी शादी खेलना बुरी बात है?"

मैं माँ से पूछता हूँ और माँ मुस्कुरा देती है ,माँ मेरी हर बात पर मुस्कुरा देती है ,माँ का मुस्कुराना मुझे अच्छा लगता है ,माँ का मुस्कुराना पिताजी को भी अच्छा लगता है  माँ को  मैं अच्छा लगता हूँमाँ को पिताजी भी अच्छे लगते हैं माँ को जब मुझ पर प्यार आता है तो मुझे अपने पास सुला लेती हैंपिताजी को जब माँ पर प्यार आता है तो वो भी ऐसा ही करते हैं, मुझे माँ पर प्यार आता है तो मै उनकी गर्दन पर हाथ डालकर सोता हूँ ,एक पैर उनकी कमर के गिर्द लिपटाते हुए और उनकी बगलों का पसीना सूंघने लगता हूँपिताजी पता नहीं क्या करते होंगे.

माँ के भीतर एक अजीब सी गंध बसती है ,मै किसी भी गंध को माँ से पहचानता हूँ. दरअसल उस दिन और दोपहर  से पहले तक मै किसी भी गंध को माँ से पहचानता था .मै जिस उम्र में था वंहा हर पहचान परिवार के बीच से उपजता था . बाहर की दुनिया में शामिल होने के लिए मै माँ की कहानियों से होकर गुज़रता था. एक सचमुच की दोपहर में जाने के लिए बहुत सी झूटमूठ की दुपहरों को पार करना होता था . और इस तरह गिनती शुरू हो जाती , एक दो ,तीनचार......मै मन ही मन गिनने लगता और राजकुमारी किले की खिड़की से अपने बाल नीचे फैला देती,दोपहर अलसाए कुत्ते की तरह आँगन में आकर पसर जाता और कुँए के पास वाला अमरुद नशे में खड़े डोलता रहता ,कभी कभी मै उसके पत्ते को हथेलियों में रगड़कर नाक के पास लाकर सूंघता ,मुझे कच्चे  अमरुद की गंध अच्छी लगती है ,मुझे मिट्ठू भी अच्छी लगती है,मिट्ठू को कोई अच्छा नहीं लगता ,ऐसा वो कहती है पर मै यकीन नहीं करता .

मिट्ठू की बहुत सी बातों पर मै यकीन नहीं करता मिट्ठू को मै अच्छा लगता हूँ ,उसकी इस बात पर मै यकीन करता हूँ . इकहत्तर,बहत्तर,तिहत्तर....खर्र..खर्र..सौ की गिनती पूरी होने से पहले ही माँ की साँसे पटरी पर लग जातीं,मै अधूरी कहानी के बीच राजकुमारी के बालों को पकड़कर किले की दीवार चढ़ने की कोशिश करने लगता . मिट्ठू आँगन में होगी मेरा इंतज़ार करते हुए, राजकुमारी किसका इंतज़ार करती है ,राजकुमारी की खिडकी दीवार की बहुत ऊँचाई पर है,
"कोई दीवार इतनी ऊंची नहीं की मै उसे फलांग न सकूँ " ऐसा चिंटू कहता है जब हम पदारू के बाग़ में आम चुराने जाते हैं  मै मिट्ठू को बताता हूँ  .

"चिंटू तो बौड़म है" ऐसा मिट्ठू कहती है . मिट्ठू सही कहती है . मिट्टू हमेशा सही कहती है ,फिर भी मै मिट्ठू की बहुत सी बातों पर यकीन नहीं करता ,हालाँकि मिट्ठू को बहुत कुछ पता है यंहा तक की उसे मरकर जिंदा होना भी आता है ,ऐसा मैंने खुद देखा है .

"तुझे पता है शादी के बाद दूल्हा दुल्हिन क्या करते हैं?" मिट्ठी पूछती है ,मिट्ठू कीआंखे बहुत बड़ी बड़ी हैं जो सवाल पूछते वक्त अक्सर गोल हो जाती हैं फिर और बड़ी लगती हैं  ,किले की दीवार बहुत ऊंची है ,इतनी ऊंची की खिड़की पर खड़ी राजकुमारी दिखाई नहीं पड़ती है ,मै बहुत छोटा हूँ.
 "क्या होता है?" मै पूछकर और छोटा हो जाता हूँ.

" मैं तुझे सिखा दूंगी ,ठीक है."मिट्ठू फुसफुसाकर कहती है. मिट्ठू हर बात को किसी रहस्य की तरह से कहती है  कि जैसे ये बात सिर्फ उसे पता है और वो सिर्फ मुझे बता रही हो और इसके लिए मुझे उसका अहसान मानना चाहिए और उससे हमेशा डरकर रहना चाहिए वैसे ये सच है की मै मिट्ठू से डरता हूँ फिर भी उसके साथ रहना मुझे अच्छा लगता है पता नहीं क्यूँ !

पिताजी ताश खेलने के लिए माँ से पैसे हमेशा फुसफुसाकर मांगते हैंमाँ पूरी दोपहर सोती है ,पिताजी अपने आफिस से छुट्टी वाले दिन पूरी दोपहर ताश खेलते हैं ,मै पूरी दोपहर मिट्ठू की बुलाहट का इंतज़ार करता हूँ,गर्मी की दोपहरें हमेशा फुसफुसाहट की तरह होती हैं ऐसा मै सोचता हूँ और राजकुमारी खिलखिलाने लगती है .खिलखिलाती हुई राजकुमारी और भी ज्यादा खूबसूरत लगती होगी ये मै किले की दीवार के नीचे ही खड़े खड़े सोचता हूँ माँ खूबसूरत नहीं हैं पर मै उनसे बहुत प्यार करता हूँ,राजकुमारी को प्यार करूँ इसके लिए उसका खूबसूरत होना ज़रूरी है . मै राजकुमारी के लंबे बालों को पकड़कर उसी के सहारे से ऊपर चढ़ने लगता हूँ किले की दीवार पर पैर  जमाते हुए और खिड़की तक पहुँचने से पहले हर बार फिसलकर नीचे आ जाता हूँ,और राजकुमारी का चेहरा नहीं देख पाता वो ज़रूर बहुत खूबसूरत होगी ऐसा मै सोचता हूँ और माँ को सोता हुआ छोड़कर बहुत धीमे से दबे पांव दरवाज़े से सांकल उतारता हूँ .

"श्श्श्ह कोई शोर नहीं ,मै तुम्हे एक ऐसी जगह लेकर जाउंगी जहाँ  हम छुपकर सुहागरात मना सकें." मिट्ठू मेरे कान में कहती है उसकी सांस से कान में गुदगुदी होती है मै खिलखिलाता हूँ ,ये राजकुमारी राक्षस के कैद में रहकर भी ऐसे खिलखिलाती क्यूँ है ,खिल,खिल,खिल..खड़,खड़,खड़...जब हवा चलती है तो आँगन में अमरुद के कसैले पत्ते झरते हैं और मै राजकुमारी के बालों को थामे हुए किले की दीवार पर इधर से उधर डोलता हूँ.
 "सुहागरात वो क्या होता है?"

"बुद्धू ,तुझे तो कुछ भी नहीं पता "  मिट्ठू झूठमूठ के गुस्से में मुझे झिड़कती है  और मै सचमुच के शर्म से कुँए में कूद जाना चाहता हूँ ,और कुँए के पाट पर बैठ जाता हूँ और मिट्ठू को देखता हूँ किसी ऐसे अपराधी की नज़र से जो किसी और के अपराध की सज़ा काट रहा हो और मिट्ठू मुझे ऐसे किसी पुलिसवाले की नज़र से दिलासा देती है जिसे उस बेचारे अपराधी से पूरी हमदर्दी हो .किले की दीवार पर खिड़की बहुत ऊँचाई में है ,मुझे अचानक से ही घबराहट होती है पर मै राजकुमारी का चेहरा भी  देखना चाहता हूँ और इस रोमंच की कल्पना से डरता भी हूँ . राजकुमारी की खिलखिलाहट में अजीब सा रहस्य  है .

"फुरफुन्दी(dragonfly) पकड़ें क्या मिट्ठू?" मै इस जादू को तोडना चाहता हूँ .इस जादू से निकलना चाहते हुए बंधा रहता हूँ .

 "शादी शादी खेलना है या नहीं?" मिट्ठू सचमुच के गुस्से में कहती है .

 "हाँ खेलना तो है." मै सचमुच के डर से हाँ कहता हूँकभी कभी मिट्ठू से बहुत डर लगता है. मिट्ठू पूरी दोपहर भटकती फिरती है उसकी माँ के मरने के बाद से उसके पिताजी  उससे कुछ नहीं कहते ,और देर से काम से लौटते हैं, मिट्ठू बहादुर है .राजकुमारी सचमुच में खिलखिलाती है या झूठमूठ में ये भी मै जानना चाहता हूँ .पर मै डरपोक हूँ.

" अगर बच्चा पकड़ने वाला आ गया तो माँ कहती है दोपहर में अकेले घुमते बच्चों को वो पकड़कर ले जाते हैं ", मैं  माँ के पास भी लौटना चाहता हूँ ,राक्षस के लौटने से पहले ,मुझे राक्षस से भी डर लगता है और राजकुमारी की खिलखिलाहट रहस्य है ,इस रहस्य में जादू है ,मै इस जादू को तोडना चाहता हूँ ,मै इस जादू में बंधा रहता हूँ ,दौड़कर भागना भी चाहता हूँ पर मिट्ठू के पीछे पीछे घिसटता रहता हूँ.वो मुझे उस चमत्कारी जगह पर लेकर जाएगी जो उसने अकेले भटकते हुए कंही खोजा है और वंहा जाकर हम सुहागरात मना सकेंगे हालाँकि मुझे सचमुच नहीं पता की ये होता क्या है पर ज़रूर कोई खराब चीज़ होती होगी तभी तो मिट्ठू मुझे इतनी दूर लेकर जा रही है,पर पता नहीं क्यूँ खराब चीजों को जानने के लिए मै हमेशा ही ज्यादा उत्सुक रहता हूँ और साथ ही धुकधुकी भी लगी रहती है पर मै अभी घिसट रहा हूँ मिट्ठू के पीछे पीछे एक हाथ से अपनी निक्कर सम्हाले हुए और दुसरे हाथ में पकडे हुए डंडे से ज़मीन पर निशान खींचते हुए ,जैसे अपने पीछे कोई गुप्त सन्देश छोड़ता  चल रहा घोड़े पर सवार बहादुर राजकुमार, ये हमारे आँगन के पीछे वाली कोलकी है  से होकर मामा सेठ के खेत को पार करते हुए उधर  रेलवे लाइन की तरफ जिधर ढेर सारे परसा के पेड़ हैं ,बेसरम के झुण्ड और चुरमुटों की झाड़ियाँ उनके बीच से रास्ता बनाते हुए, मिट्ठू के दुपट्टे से बंधे बंधे एक मरगिल्ले पिल्ले की तरह.

 "जब कोई बड़ा साथ हो तो बच्चा पकड़ने वाले नजदीक नहीं आते" मिट्ठू मुस्कुराते हुए कहती है ,मुस्कुराती हुई मिट्ठू और बड़ी लगती है मै और छोटा लगता हूँ ,किले की दीवार और ऊंची होती जाती है ,राजकुमारी की खिलखिलाहट और नजदीक आती जाती है और फिर चुरमुट के झाड़ियों के बीच पंहुचकर एक झालर खुल जाता है ,एक सुरक्षित मांद ,प्राकृतिक घोसला. 

"मैंने ये झालर खोजा है ,पर तुम्हे मै यंहा आने दूंगी,लेकिन मेरी किरिया(कसम) जो अगर इसके बारे में किसी को बताओ तो. अब से ये दूल्हा दुल्हिन का घर है."

"मिट्ठू मुझे डर लग रहा है" मै रुआंसा हो जाता हूँ ,मिट्ठू मुझे झालर के भीतर ले आती है ,मै कमर से नीचे  खिसकती अपनी फटी हुई निक्कर को ऊपर खींचता हूँ,मिट्ठू मेरे दुसरे  हाथ में पकड़ा हुआ डंडा छीनकर दूर फेंक देती है और पकड़कर अपनी ओर खींचती है.

"तू दूल्हा  मैं दुल्हिन " मिट्ठू कहती है और मुझे पकड़कर नीचे बिठा देती है झालर के भीतर अखबार से फाड़कर निकाला  हुआ कृष्ण राधा की एक तस्वीर है और कच्चे बेर की गुठलियाँ बोरकुट और आमकूट की पन्नियाँ  शायद हमारे आने से पहले वंहा कोई कुत्ता सुस्ताकर गया  होगा ये मै झालर के भीतर की गंध से जान लेता हूँ ,मुझे अचानक ही से बहुत डर लगता है  मिट्ठू को डर नहीं लगता, मिट्ठू मिडिल स्कूल  में पढ़ती है,राजकुमारी के बाल कितने मुलायम हैं ,मिट्ठू कित्ती बड़ी है तभी तो सलवार कमीज़ पहनती है ,मै अपने हाथ बहार खींच लेना चाहता हूँ,मिट्ठू कितनी गन्दी है वो अपने पजामे के भीतर कुछ नहीं पहनती ,राजकुमारी ने मुझे अपने बालों सहित ऊपर खींचना शुरू कर दिया है ,मैं रोना चाहता हूँ पर शर्म के मारे रो नहीं पाताराजकुमारी खिलखिलाकर हंसती है ,मिट्ठू हंसने और रोने के बीच गले से अजीब आवाजें निकालती है ,उसकी पकड़ मेरी कलाइयों  पे सख्त होती जाती है मुझे राक्षस के घोड़े की टापें सुनाई पड़ती हैं,वो नजदीक आ रहा है और कभी भी मुझे दबोच सकता है, मैं राजकुमारी के बाल छोड़ देता हूँ और किले की दीवार से नीचे की ओर गिरने लगता हूँ,मिट्ठू के बांह पर मेरे दांतों के निशान हैंमिट्ठू दर्द से चीखती है ,राजकुमारी खिलखिलाती है ,मै भागता हूँ ,झालर से निकलकर घास पर सहकारी दूकान के पीछे वाले मैदान से होते हुए भागता जाता हूँ,बदहवास और राक्षस मेरे पीछे है ,रेल के पटरियों के पार ,बेसरम के झुण्ड ,सेमल के बगल से होकर मामा सेठ के खेत की मेढ़ों पर गिरते पड़ते और आँगन की टूटे  दीवार को फांदते हुए और ये आ गया हमारे घर का  कुआँ ,नहीं मुझे अभी नहीं मरना,मुझे माँ के पास पहुंचना है और ये धडाक,  दरवाज़ा खुला ,दो खपरे टूटकर छाँदी(छत) से नीचे गिरती है ,फिर सांकल चढाती  हुई ऊँगलियाँये ऊंगलियों में क्या है,अजीब सा लिसलिसा मै उँगलियों को कमीज़ पर पोंछता हुआ, एक अजीब सी गंध. 

मैं हाथ झटकता हूँ छिः छिः और फिर से नाक के पास जाती ऊँगलियाँ ये गंध तो सचमुच ही बहुत अजीब है रहस्यमई ,जादुई राजकुमारी के खिलखिलाहट की तरह अजीब ही गंध...मेरी अब तक की जानी हुई गंधों से अलग, मेरी अब तक के दुपहरों से अलग ,माँ पिताजी और परिवार की पहचान से अलग ,मेरे खुद का जाना हुआ या कह लीजिए की मिट्ठू के द्वारा मुझ पर खोला हुआ एक और रहस्य ,मिट्ठू का बताया हुआ पर मिट्ठू से अलग मेरा अपना निजी रहस्य. मुझे भले ही अब कोई मेहर चाचा के बीवियों के भाग जाने का रहस्य न भी बताए तो कोई बात नहीं मेरा भी रहस्य है जो  मैं कभी किसी को नहीं बताऊंगा आखिर मुझ पर मिट्ठू की किरिया (कसम) जो है .
पोस्ट में प्रयुक्त कलाकृति उदय सिंह की है.

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