शनिवार, 18 अगस्त 2012

दुनिया रोज़ कपड़े बदलती है

                                Artist - Rene Magritte 






















हर इस्तेमाल हुए चेहरे के लिए
मै अलग अलग शब्द ढूंढता हूँ
कि जैसे आखिरी बार मैंने कब झूठ बोला था
और पिताजी को मुझ पर इतना गर्व था
कि वो लगभग झिझकते हुए से
मुझसे पानी का गिलास मांगते थे.

बचपन के किसी शाम में
राख से बर्तन घिसती मेरी अम्मा ने मुझे बताया था
कि दुःख, आग से बर्तन पर लगी कालिख है 
इसे घिस घासकर चमकाना पड़ता है
और उसी शाम गांव में पहला रंगीन टीवी आया था.

जबकि बचपन के रोने में
सिर्फ एक चेहरा भीगता था
और अपने बड़े होते जाने में
ढेर सारी लालसाओं का हाथ था
इस तरह सारे चेहरे लिसलिसे थे.

फिर भी नहाते वक्त मै आज भी गाने गाता हूँ
और धूप देखकर खुश हो जाता हूँ
कि यही वो नया चेहरा है
जो कभी पुराना नहीं पड़ता
जबकि दुनिया रोज़ कपड़े बदलती है.

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