शनिवार, 21 दिसंबर 2013

आदमी एक दो तीन


                                     Artist - Ram Dongre





















एक
उस आदमी के पेट में
मछलियाँ तैरती थीं
और दिल में
गौरैय्या चिड़ियों का झुण्ड
और दिमाग़ में
सिर्फ ज़हरीले साँपों का गुच्छा
भला कब तक जीता ऐसे
मर गया बेचारा
या मार दिया गया हो
पता नहीं
सम्भावना तो आत्महत्या जैसी भी है.

दो
छोटे शहर या शायद किसी गांव से आया आदमी था
बड़े शहर में आकर
और छोटा हो गया आदमी
इतना छोटा
कि चींटियों ने
शक्कर के दाने कि तरह कुतरकर चट्ट कर लिया।

तीन
आदमियों जैसी कोई आदमियत न थी उसमे
इस तरह का आदमी
कि सारे आदमीयों की राय में
अच्छा आदमी
इतना
कि सब कहते
अच्छा आदमी है
इसे मर जाना चाहिए
वरना मार दिया जाएगा
ऐसा आदमी।

गुरुवार, 12 दिसंबर 2013

हर कविता पहली होती है जैसे आखिरी होती है




            Egon Schiele  Photograph - Johannes Fischer






















मै खिडकी के बाहर की तरफ देखता हुआ बैठा था
(बहुत देर से)
और खिडकी मेरे भीतर की तरफ झांकती हुई
(बहुत देर तक)
सिर्फ खिडकी ही नहीं बल्कि उसके साथ
बाहर खड़ा मुनगे का पेड
और उस पर बैठी एकमात्र चिड़िया
और बूँद बूँद टीकलियों जैसे उसके अनगिनत पत्ते
देर से
देर तक  
मुझे घूरते
उगते झरते मरते   

ये क्या बकचोदी है
मै सोचता हूँ
और खिडकी के बाहर कूद जाना चाहता हूँ
(हमेशा कि तरह)
और इसके पहले ही खिडकी मेरे भीतर उतर आती है
(पहली बार)

अब तो हद हो गई

कहकर मै खिडकी पर झल्लाता हूँ

बहनचोद बाहर निकल जा वरना हमेशा के लिए बंद कर दूँगा

और खिडकी
और खिडकी के बाहर का पेड़
और चिड़िया
और मकान
और मकानों के बीच से थोडा बहुत जितना भी दिखता आसमान
मतलब की खिडकी से बाहर का दिखता पूरा दृश्य ही
एक साथ मिलकर मुझे
माँ बहन चाची भाभी सब की गालियाँ बकते हैं
और मै चुप्प
(एकदम चुप्प)

फिर खिडकी समझदारी दिखाते हुए कहती है

देख बे हरामी
तुने मेरे बाहर इन सब को रोज़ देखते हुए
झूठी बकवास कहानियाँ और घटिया कवितायेँ गढ़ी हैं
इस तरह से देखा जाए तो तुझ पर हमारा क़र्ज़ है
अब आज तू हमें कुछ नया सा सुना
और अपना क़र्ज़ उतार
तुझे क्या लगता है हम बोर नहीं होते

इतना कहकर खिडकी ने मेरे भीतर अपने दोनों पल्ले खडकाए

चलो ठीक है
मैंने सोचा
मेरे पास एक और रोल किया हुआ ज्वाइंट भी है
और बहुत सारा वक्त भी
भला मुझे कौन सा कुआं खोदने जाना है
मै तो इस समय के सुविधाओं की पैदाइश हूँ

अच्छा ठीक है
तो बताओ क्या सुनना चाहते हो
और किस बारे में

मै अपने भीतर झाँकते हुए
खिडकी और खिडकी के बाहर दीखते दृश्य से पूछता हूँ

जो कुछ भी तुम्हारे सड़े दिमाग से निकल आए झेल लेंगे

कहकर खिडकी और दृश्य एक साथ मुस्कुराए

धुएँ और अपमान से मेरी आँखों में आंसू और खांसी दोनों निकल आया

कुछ भी क्या

मैने गुस्से और गांजे के धुएँ को एक साथ निगलते हुए पुछा

दोपहर में क्या था

ये कैसा सवाल हुआ

अबे गधे सवाल नहीं टॉपिक दिया है तुझे
चल बकवास को कम रखते हुए दोपहर की कहानी सुना
जिससे आज कि ये दोपहर किसी तरह कट जाए
ये साली दुपहरें ही हैं जो ज़्यादा हरामन होती हैं
आसानी से नहीं कटतीं

ठीक है तो सुनो
एक कमरा था
एक गमला
एक खिडकी
एक आदमी
एक...

बोर....बहुत क्लीशेड है...

पहले सुन तो लो..

बहुत बार सुना है यार...

दृश्य ने खिडकी को मेरी आँखों के भीतर ठेलते हुए कहा
जिस पर चिड़िया मेरी पुतलियों पर चोंच मारते हुए ठहाके लगा रही थी
(कुतिया)

अच्छा ठीक है
फिर से बताऊँ

बताओ की दोपहर में क्या था

एक पीपल
एक बन्दर
एक मदारी
मदारी नचाता था
बन्दर नाचता था
और पीपल से पत्ते झरते थे
अब बन्दर मरने का नाटक करता है
बन्दर का ये नाटक देखने के लिए कोई नहीं है
सिर्फ मदारी है
मदारी उबता है
मदारी कि ऊब देखने के लिए कोई नहीं है
सिर्फ बन्दर है
बन्दर सचमुच में मर जाना चाहता था
मदारी सचमुच में बन्दर को मार देना चाहता था
मदारी गुस्से ऊब और उलझन में अपनी डमरू तोड़ देता है
अब बन्दर कहीं भी जा सकता था
सो वो चला जाता है

बस इतना ही

कहानी में बेफिजूल की डिटेलिंग से मुझे चिढ मचती है
या कह लो खुद कहते हुए भी मै बोर हो जाता हूँ
(बोर हो जाता हूँ)

मदारी बेवकूफ था उसे अपना डमरू नहीं तोडना चाहिए था

दरअसल बन्दर बेवकूफ था उसे लगता था कि मदारी को अपने डमरू से प्यार है

मदारी को बन्दर से प्यार तो रहा ही होगा

बन्दर को डमरू कि आवाज़ अच्छी लगती थी

फिर मदारी का क्या हुआ

क्या बन्दर जंगल में चला गया

ये दोपहर की कहानी है

नहीं ये उस मदारी की कहानी है जिसे उस दोपहर के बाद किसी ने फिर कभी नहीं देखा

बकवास

इस तरह तो ये दोपहर कभी नहीं कटेगी

पूरा दृश्य आपस में एक दूसरे से झगड रहे थे
उन्हें चुप कराने के लिए मुझे एक दूसरी कहानी कहनी थी
(हर कहानी दूसरे में खुलती तीसरे से गुज़रती चौथे में
पलती पांचवे में बढती छठे में मरती सातवें जन्मती इस तरह
हफ्ता पूरा होता मैं चेन्नई एक्सप्रेस होती)

अच्छा तो ये सुनो
एक दोपहर में
एक कमरा है
उसमे एक आदमी है
और आदमियों की तरह ही उसके
दो पैर
दो हाथ
एक दिल
दो फेफड़े हैं
बस चेहरा नहीं है
इसलिए आँख नाक कान और मुह जैसी कोई चीज़ भी नहीं है
मतलब की बिना चेहरे का एक स्वस्थ हट्टा-कट्टा आदमी
वो कभी नहीं ऊबता इसलिए उसे सिगरेट की भी ज़रूरत नहीं होती
और अगर होती भी हो तो पीएगा कैसे
हा हा ...
(सॉरी चुतियाप भरा जोक हो गया)
खैर तो  उससे मै सिर्फ एक बार मिला हूँ
उसी एक दोपहर में जिसके बाद से मेरी दुपहरें थोड़ी कम हो गईं
इसलिए ऊब भी
हालांकि मै सचमुच ही ये नहीं बता पाउँगा की वो खाता कैसे होगा
और अगर खाता नहीं तो जीता और हगता कैसे होगा
वो देख सकता है ये मै गारंटी के साथ कह सकता हूँ
पर कैसे ये नहीं
हालांकि...

आज बारिश होने के आसार हैं

पेड़ ने ऊबकर जम्हाई लेते हुए कहा

उसके जम्हाई लेने से बहुत सारे पत्ते एक साथ झरे
पत्तों के झरने को आज से पहले तक हमेशा
मैंने कविता में किसी जादू की तरह से देखा और लिखा था
पर अभी सिर्फ इस बात से मुझे चिढ ही मची
आखिर इतने इंटेंस कहानी के बीच कोई ऊब कैसे सकता है
(साले सब हरामी)

तुम कोई असली कहानी नहीं सुना सकते

क्या ये दिमागी चोद मचाना ज़रुरी है

और वैसे भी इसमें कुछ भी नया नहीं

सब सुनी हुई बकवास है

चोर कंहीं के...

दृश्य में दृश्यमान
सब एक साथ मुझ पर भड़क उट्ठे
और मुझे चोर कहने वाली वो चिड़िया थी
जिसे आज तक अपनी कविताओं में मैंने मनुष्यता
और मासूमियत के प्रतीक रूप में चित्रित किया था
जी में तो आया की अभी गला मुरकेट दूँ कुतिया का
पर वो मेरे भीतर बैठी थी
और बहरहाल तो ये असंभव था

अच्छा ठीक है ये सुनो..
एक लड़की थी
बहुत बेवकूफ
वो उन लड़कों के बारे में सोचकर उदास होती थी जिन्होंने उसे कभी प्यार नहीं किया

इतना बोलकर मै चुप हो गया

फिर आगे

चिड़िया ने बड़ी उत्सुकता से पुछा

उसकी इतनी ही कहानी है
(हा हा हा मैं हरामी)

मैंने कहा
और पूरा दृश्य रात कि तरह चुप्प
बेबात कि तरह चुप्प  
मुझे थोडा बहुत अंदाज़ा तो था
पर इतने लंबी चुप्पी कि उम्मीद नहीं थी
और मैं हैरान
कि भला एक बेवकूफ लड़की के अकेलेपन में ऐसा क्या है
जो मेरी बेचैनी से बढ़कर हो
मैं उन सब से अलग अलग
एक साथ ये पूछना चाहता था
पर तब तक
खिडकी दीवार में अपनी जगह पर जा चुकी थी
बाहर अँधेरा था
भीतर मैं अँधेरे में
अँधेरा घूरते
कल फिर दोपहर होगी
कल मैं अपनी पहली कविता लिखूंगा
जैसे ये आखिरी कविता लिख रहा हूँ.

शनिवार, 30 नवंबर 2013

और बाकी सब तो ठिक ठाक है


                                                 Screen shot - Melancholia












और बाकी सब तो  ठिक  ठाक  है
ऐसा मैं कहता
पर नहीं कहूँगा 
की बस एक कविता कि कमी है 
रहती है 
होती है 

बुलाता हूँ 
आती है 
चली जाती है 

फिर  रुकने के लिए कहता हूँ 
फिर जाने के लिए कहता हूँ 

जाती है 
और नहीं आती है 

फिर आएगी 
जब नहीं बुलाऊंगा
जैसे बिना बुलाए ही
दुःख चला आता है

आती है
आएगी
आ रही होगी
पर रुकेगी नहीं  

बड़ी हरामन  होती हैं ये कविताएं 
खुद नहीं रहतीं 
बस इनकी कमी रहती है 

बाकी तो सब ठिक ही ठाक है। 






बुधवार, 27 नवंबर 2013

मैं गधा हूँ

                        Artist - Rohit Dalai

         १. 
'ये तो हद्द है यार'
गधा अपनी दुलत्ती झाड़ते हुए लगभग इर्रिटेट सा होकर कहता है 
सुनकर घास चरता हुआ मालिक सकपकाकर गधे कि तरफ देखता है 
मालिक कि सकपकाहट देखकर गधे को हँसी आ जाती है 
गधे कि बत्तीसी देखकर मालिक को बड़ा सुकून सा पहुँचता है और वो एक लम्बी सी साँस छोड़कर फिर इत्मीनान से घास चरने लगता है ये सोचते हुए 
' सचमुच ही हद्द है यार' . 

         २. 
मालिक कभी कभी ये सोचकर बहुत परेशान होता था 
कि आखिर उसका गधा गधा क्यूँ है 
वो कुत्ता भी तो हो सकता था या खरगोश या बैल या हाथी बकरी या सूअर होने से भी चलता 
वो इनमे से कुछ भी हो सकता था फिर उसने गधा ही क्यूँ चुना 
पर फिर वो ये सोचकर तसल्ली कर लेता था कि आखिर वह मालिक क्यूँ                                                          है ये भी तो उसे नहीं पता
इसलिए आखिर इस बात से भी भला क्या फर्क पड़ता है.

         ३.
गधा सोचने में बिलकुल भी समय  बर्बाद नहीं करता था
वो बस कभी कभी कमोड पर बैठकर कवितायेँ लिखता था
उसके ख़याल में यही इकलौता ऐसा काम था जिसमे काम जैसा कोई काम नहीं था
बस कभी कभार उसे मक्खियों से बचने के लिए मजबूरन अपनी दुलत्ती उठानी होती थी.

         ४.
मालिक को कभी कभार ये सोचकर बड़ी कोफ़्त होती थी
कि मैं गधा क्यूँ हूँ

         ५.
गधे को इस बात से बड़ी ख़ुशी थी
कि मैं गधा हूँ.

सोमवार, 14 अक्तूबर 2013

रजिया फिर फँस गई गुंडों में

                                            Artist - Myself


सवाल ये नहीं 
कि रजिया को गुंडों से कौन बचाएगा 
सवाल ये है 
कि रजिया गुंडों से कैसे बचेगी 

जवाब में रजिया हँसती है 

सवाल में रजिया अकेली है 
जवाब में रजिया पहेली है 

हमारे इस सवाल जवाब के फेर में
देखो
रजिया फिर फँस गई गुंडों में.

क्या ज़रुरी

                                              Artist - Myself






















क्या ज़रुरी
कि मैं ऐसा लिखूँ
जिसमे दुनिया के आँसू हों
पडोसी के बीवी का दुःख हो
अरसा पहले मर गए बाप का अफ़सोस हो
और अपने अब तक नहीं किये पापों के लिए खुशी
(जिन्हें ज़रूर कभी करूँगा)

अरे नहीं छूती मुझे औरों कि तकलीफें
माफ करता हूँ मैं खुद को
खुद ही

क्या ज़रुरी
कि जंगल का मतलब
हमेशा हरियाली हो
और मैं
अपने अंदर के कुँए में डूबते हुए
समंदर का सपना
देखूँ
दिखाऊँ

क्या ज़रुरी
कि मेरे हाथ में हमेशा एक
फटा हुआ झंडा हो
(पोंछा मारने वाले कपड़े का)
कि मैं हमेशा ऐसा कुछ कहूँ
जिसका कोई मतलब ना हो
और लोग ताली पीटते हुए हलकान हो जाएँ
कि जैसे कितनी सुन्दर बात कही है
आओ तुम्हे गले लगाऊँ
तुम्ही सँवारोगे इस जहन्नम को

अच्छा जी

क्या ज़रूरी
कि तुम्हारी इन झूठी तालियों के लिए
मैं हरामी ना बन जाऊँ
हरामखोरों

क्या ज़रूरी.

रविवार, 15 सितंबर 2013

बेचारे शब्द

                                                                  Artist - Tulsi Ram

















बाप रे 
कितना तो सहते हैं 
ये बेचारे शब्द 
भीतर का सारा मैल  उड़ेल दो इन पर 
फिर भी बिना उफ्फ किये
चुपचाप बिछते चले जाते हैं पन्ने पर 
तुम्हारा क्या है 
तुम तो जनाब चल दिए मुँह उठाए 
दुःख बटोरने 
पर लाकर मत्थे तो मढोगे इन्ही शब्दों के सर 
उस  पर भी तुर्रा ये 
कि अनुभव हैं 
अरे महराज 
अपने पिछवाड़े डालो ये अनुभवों की पोटली 
जिनसे ना ढँग की कविता बनती है 
और ना कोई काम
ऊपर से शब्दों का जो हर्जा होता है 
सो अलग. 

शनिवार, 14 सितंबर 2013

इस तरह चुटकुले का जन्म हुआ

                                                       Artist - Raj kumar Sahani 













शहर में
वो एक अकेला इतना भूखा था
की पूरा शहर निगल गया.

"कितना बड़ा शहर था?"
नायिका पूछती है

"नंगेपन की दूसरी कोई परिभाषा नहीं"
कहकर नायक अपने कपडे उतरता है.

"मेरे पीरियड्स चल रहे हैं वरना हम साथ सो सकते थे."
नायिका कहती है

नायक के दिमाग में खरगोश है

"मैंने कभी खरगोश का गोश्त नहीं चखा"
नायक सोचता है

और कुछ नहीं होता
जैसे कभी कुछ नहीं होता

"हमेशा हर वक्त कुछ ना कुछ  होते रहता है फिर भी  हम बस हो चुके को बार बार दुहराते रहते हैं और एक दिन मर जाते हैं जबकि मरने से पहले हमें कुछ करना चाहिए जिसका कुछ मतलब निकलता हो वरना मैं अभी ही मर जाऊंगा।"
कहकर नायक रोने लगता है

नायिका हंसती है और अपने कपडे उतारती है

कविता कहानी के साथ सोती थी
और रोती थी
इस तरह चुटकुले का जन्म हुआ
आओ हम सब मिलकर इस चुटकुले पर हंसें।

सोमवार, 9 सितंबर 2013

आसमान में चुप्पी का मतलब

                                                                  Artist - Ramkumar

















आसमान में चुप्पी का मतलब
मैं चाँद की रौशनी में
गाँव को याद करता हूँ
मुनगे की छितराई छाँव में
घर को टटोलता हूँ
हाट हटरी के शोर में
पिताजी को देखता हूँ
मन की मछली खरीदते
जिसे घर लाकर वो स्वयं पकाते हैं
चुल्हा भाभीजी जलाती हैं
मसाला पीसकर मछली माँ तलती हैं
की अगर चूल्हा भाभीजी ना भी जलाएं
तो भी चाँद की हलकी आंच पर
पिताजी मछली तल ही लेंगे
ऐसा मैं सोचता हूँ
और चाँद मुस्कुराने लगता है

आसमान में चुप्पी का मतलब
आँगन में लेटे पिताजी की खांसी है
और भिनसरहा में
माँ की खरहरी झाड़ू का शोर है

आसमान में चुप्पी का मतलब
मेरे घर पहुँचने तक का रास्ता है। 

बुधवार, 29 मई 2013

इसलिए मुस्कुराता हूँ

                               Artist - Rohit Dalai





















एक दिन सब समझ जाऊँगा
या कह लो सब
धीरे धीरे समय के साथ ही समझ आता है
कहना झूठ है

अभी सिगरेट के साथ यहीं तो रखा था माचिस
कहाँ गया बहनचोद....हद्द है यार
कहकर चिडचिडाते हुए खुद पर चिल्लाता हूँ
(अब कौन साला फिर उठकर माचिस ढूंढें)
और शर्ट की जेब में
नए माचिस का जन्म होता है
मैं खिलखिलाता हूँ  

नहीं समझना कुछ

या तो सब बकवास है
या सब का कुछ मतलब है
(इतने मतलबों का भला क्या मतलब है)


और कहते हैं
कि एक दिन सब ठीक हो जाता है
का मतलब मर जाना है
का मतलब
उस दिन सब ठीक हो जाता है

बकवास

हा हा हा हा  

समझ गया हूँ
पर समझ नहीं पाता के भाव से
कविता जन्म लेती है


इसलिए मुस्कुराता हूँ.

रविवार, 19 मई 2013

और इतनी सीढियाँ थीं.


                                            Artist - Basist Kumar





तब के दिनों में हमेशा ही
गाँव में डोंगरी की सीढियाँ चढ़ते हुए लगता था
कि ऊपर पहुंचकर जो मंदिर मिलेगा
पहली बार देखा ये मंदिर जैसा मिलेगा

कितना छोटा था मैं
और इतनी सीढियाँ थीं.

   

चाँद हमेशा से ही बदसूरत था


                                                       Artist - Basist Kumar


















कभी कभी
मैं सिर्फ लिखने के लिए जागता हूँ
और जागते हुए सोचता रहता हूँ
कि ऐसा क्या लिखूं
जो नींद आ जाए

फिर बीच बीच में
रह रहकर
कुत्ते भौंकते हैं
पर इससे मेरे नींद की सोच में
कोई खलल नहीं पड़ता

और चाँद हमेशा से ही बदसूरत था

और मई कि इस रात के बारे में क्या कहूँ 
ऊपर से ये बहनचोद मच्छर
इनका बस चले तो मेरी जान लेकर ही मानें

इन पर और कैसी कविता लिखूँ?

सोमवार, 13 मई 2013

भांड में जाता हूँ मैं भी

                                                    Artist - Rajkumar Sahni















भांड में गई ऐसी विनम्रता
और
सही होने की ज़िद
जिसमे कछुवे कि तरह जीते हुए
तीन सौ साल लंबी ऊब और उम्र मिले
और
आखिर में एक तस्वीर
जिसमे हम 
फटे हुए चूत कि तरह मुस्कुराते दिखें
और
भांड में गई ऐसी नैतिकता
कि उनके घटियापन को उस्तादी कहूँ
और अपने बेवकूफियों को बकचोदी
और हँसता रहूँ इस बात पर
कि मुझे सिर्फ उदास चेहरे ही पसंद आते हैं
और
भांड में गए वे सारे लोग 
जिनके नहीं होने से भी
मैं तो हूँ ही
फिर क्या अचार डालूँ उनके होने का
इसलिए चलो
भांड में जाता हूँ मैं भी.

गुरुवार, 2 मई 2013

मै सिर्फ एक बार तेरे साथ सोना चाहता हूँ इसे दूसरी तरह से कैसे कहूँ



                                                          Artist - Rohit Dalai




















कभी कभी मैं लिखने, सोचने और कल्पनाएँ करने को भी ज़रूरी काम कि तरह देखने लगता हूँ और ऐसा करते ही लिखना सचमुच काम कि तरह ही बोरिंग और बोझ लगने लगता है फिर भी मैं आपको लिखकर बताता हूँ कि उस दिन हम दोनों इस तरह से बैठे थे मानो इसके बाद हमें किन्ही नए शहरों की ओर कूच करना हो जैसी खुशी और घबराहट के साथ अगल बगल और हमारे पीछे एक छोटी सी पेड़ पौधों की नर्सरी थी जहाँ मुश्किल से दस ही किसम के पौधे होंगे उनमे से भी आधे मुरझाए हुए हवा कम थी और मै सिर्फ सत्ताईस बरस का था ज़ाहिर है कि वो मुझसे उम्र में थोड़ी छोटी थी और शहर बहुत बड़ा

हाय हेल्लो जैसी बेकार सी बातों के बाद...

- (मुस्कुराकर) मै सिर्फ एक बार तेरे साथ सोना चाहता हूँ , इसे दूसरी तरह से कैसे कहूँ
- (हैरानी से) कोई ज़रूरत नहीं
- (मुस्कुराकर) अबे तेरे लिए बहुत सी कवितायेँ लिखी हैं मैंने, अब सोच की जब बहुत साल बाद तू इन्हें पढेगी तेरे चेहरे पर झुर्रियाँ होंगी और मेंरी याददाश्त पर जाले. साथ सोना याद रखने का अच्छा टोटका है.

ये सब मैंने उस बेवकूफ लड़की से कहा जो उन लड़कों के बारे में सोचकर उदास होती थी जिन्होंने उसे कभी प्यार नहीं किया हालांकि वो अप्रैल में सूरज के मरने से कुछ देर पहले की शाम थी और उस दिन उससे मिलने के लिए ही खास तौर पर मैंने अपने बाल और दाढ़ी मूंछों पर कैंची चलवाया था जबकि वो घोर गरीबी के दिन थे जिसमे दाढ़ी मूँछो पर पैसे खर्च करना बेकार किस्म की ऐय्याशी थी और वो भी तब जब पैसे उधार के हों
(जिसके लिए बाद में मैंने हफ्ते भर अफ़सोस भी किया था)

अपने घुटनों के बीच सर देकर वो धीरे से खुश होकर हँसी
(कमीनी मैंने देख लिया था)
फिर भी मैंने कीलों से बिंधे ईसा का चेहरा ओढकर उसकी तरफ उम्मीद से देखा
(ये मेरी बेवकूफी थी या हरामीपन)

-  (शरारतन) मुझे कविताओं में कोई दिलचस्पी नहीं.
- (शरारतन) इसीलिए तो, मेरे साथ एक बार सोने के बाद तुझे कविताओं में दिलचस्पी हो जाएगी
- (झूठी) बस इन्ही वजहों से नहीं मिलना चाहती थी तुझसे
- (कमीना) तुझे अंदाज़ा था ?
- (झूठी) थोड़ा बहुत
- (कमीना) पर तेरे साथ सोने के बारे में मैंने बस अभी अभी सोचा, जब तू रिक्शे से उतर रही थी और मैं हैरान हूँ की पिछले २ सालों में कभी ये ख़याल क्यूँ नहीं आया
- (इर्रिटेटेड) क्यूंकि हम दोस्त थे
- (इर्रिटेटेड) बकवास
- (इर्रिटेटेड) मैं जा रही हूँ

उसने बैग से डीयो निकलकर अपने बगलों में छिड़का हालाँकि हमारे आस पास तीसरा कोई नहीं था
(मुझे अब तक उस डीयो की बदबू याद है)
गुस्सा तो इतना आया की खुद ही उठकर चला जाऊं पर मुझे कहानी में वहाँ तक जाना था जहाँ नौ महीनों के बाद रानी ने पत्थर जना था
(अच्छा जी)

- (बेशरम) यार प्लीज़ थोड़ी देर और रुक जा, ये आखिरी कहानी है जिसमे तू है
- (कठोर) ये तू पहले भी कह चुका है
- (देवदास) तब सोचकर नहीं कहा था
- (बेवकूफ) पिछली कहानी में मैं बकरी थी अबकी इस कहानी में क्या हूँ?
- (समझदार) इससे क्या फर्क पड़ता है
- तू मुझे अपनी कहानियों में इस्तेमाल करे और मुझे जानने का भी हक़ नहीं...
 (मैं अपना माथा पीटता हूँ)
- अबे मुझे लिखने के लिए लात चाहिए, ज़माने कि लात से कुछ खास असर नहीं होता इसलिए तेरे पास आता हूँ
 (वो अपना माथा पीटती है)
- झूठा
- तुझसे कम
- जाकर किसी और कि लात खा..
- हा हा हा तो सुन...एक राजा था आठ शादियों के बाद भी संतान सुख से वंचित तो उसने नौवीं शादी भी कर ही लिया और किस्मत से कुछ ही महीनों में रानी प्रेग्नेंट अब राजा के साथ पूरी प्रजा भी खुशी से इंतज़ार में पगलाई हुई और आखिरकार वो दिन आया जब रानी के बहुत दर्द उठा पर ये क्या रानी ने बच्चे की जगह पर एक पत्थर के धेले को जन्म दिया और....
- (खुश होकर) तो इस कहानी में मै रानी हूँ..
- (उदास होकर) नहीं, बल्कि वो पत्थर जिसे रानी ने जना..
- (गुस्से से) क्या बकवास है, मैं जा रही हूँ
- (बेसब्र होकर) अबे आगे तो सुन...फिर उसी पत्थर से राजा ने रानी का सर कुचल दिया...
- (डाँटकर) तू कोई ढंग की सी कहानी नहीं लिख सकता जिसे पढकर, सुनकर मैं खुश हो जाऊं
- (प्यार से) यार मैं कब से ये पूछना चाह रहा था तुझसे की तू इतना खुश कैसे रह लेती है ?
- (दार्शनिक अंदाज़ में) मैं खुश रहती हूँ और कुछ रहना भूल गई हूँ क्यूंकि इस शहर में बहुत से शहतूत के पेड़ हैं शायद इसलिए भी मुझे शहतूत पसंद नहीं भले ही वो देखने में अच्छे लगते हैं और आखिरी बार मैं खँडहर फिल्म देखकर रोई थी जबकि शबाना आज़मी मुझे कभी अच्छी नहीं लगी और तुझे क्यूँ लगा की मै उदास रहती हूँ
- तुझे कवितायेँ पढ़नी चाहिए और अभी के हिरोइनों में सिर्फ तब्बू है जिसके साथ सोने के बारे में मैंने कभी नहीं सोचा मुझे लगता है मै उसके साथ घंटों चुप बैठ सकता हूँ हा...हा...हा....और मैंने ये कब कहा की तू उदास रहती है

वो भी हँसने लगी फिर बैग के भीतर ही आइना खोलकर अपने अन्डोतरे चेहरे को निहारकर मुस्कुराई और आदतन बालों पर हाथ फेरा
(तब मैंने सोचा था की क्या खूबसूरत लडकियां भी ऐसा ही करती होंगीं)

- (ब्लैंक) अब जल्दी से बोल क्या बात करनी थी तुझे क्यूंकि मुझे कहीं जाना भी है
- (बोर) अरे मेरी अम्मा कितनी देर से तो बोल रहा हूँ पर तू मुझे सीरियसली ले ही नहीं रही
- (ब्लैंक) देख साफ़ बात ये है की मै आजकल किसी को डेट कर रही हूँ
- (बोर) एक के साथ दस को कर मुझे कोई प्रोब्लम नहीं मुझे तो सिर्फ एक बार तेरे साथ सोना है

(लंबी चुप्पी)

- (फिर से दार्शनिक) देख सुन और समझ...दुनिया काला और सफ़ेद नहीं, तुझे मेडिटेशन करना चाहिए इससे दिमाग शांत रहता है और मुझे किसी ऐसे लड़की कि कहानी सुना जो खँडहर कि शबाना आज़मी ना हो बल्कि मकबूल कि तब्बू हो..
- (साला हरामी) वाह लाली... खूब समझ रहा हूँ तेरी चालाकी, पर पहले मैंने तुझसे झूठ बोला था मैंने तब्बू के साथ भी सोने के बारे में कल्पना कि है...
- ऐसा है कि तू भांड में जा, मैं जा रही हूँ.
- अबे बैठ तो सही और सोच कि आखिर बाकी कि आठ रानियाँ कैसे जीती रहीं..
- पत्थरों के दिमाग नहीं होता सोचने के लिए
- इसीलिए तो...
- इसीलिए तो तू पागल है और मै जा रही हूँ
- जाने वाला तो कब का जा चुका है उसका बदला मुझसे क्यूँ
- तू सिर्फ उस एक को जानता है और भी बहुत से हैं
- हे भगवान कब असली लोकतंत्र आएगा
- हा हा... अगर ऐसी ही बकवास कहानियां लिखता रहा तो कभी नहीं, और मुझे सचमुच ही अब जाना है
- हम्म...अच्छा जी ठीक है फिर 

इस बार वो सचमुच उठकर जाने लगी हालांकि मैं उसे रोककर और भी बहुत कुछ बताना चाहता था जैसे की ये कि मुक्तिबोध कैसे मरे और मेरी मकान मालकिन कुतिया है और वान गॉग कितना बड़ा बेवकूफ था और आलसी होना कितना मजेदार चीज़ है और मैं डार्क नाईट का जोकर जैसा हो जाना चाहता हूँ, और मोहनदास पढ़कर मैं डरके मारे रोने लगा था और मैं सिर्फ बकवास करता हूँ और ये सब कितना बोरिंग है जबकि कहानी में साला राजा दसवीं बीवी भी ले आया था....

खैर... रिक्शा स्टैंड तक हम साथ गए और मैंने लड़की को रिक्शे में बिठाया और उसे जाते हुए देखता रहा ये सोचते हुए कि आखिर रानी के पेट में पत्थर आया कहाँ से, कौन था वो दुसरा आदमी जिसने रानी के पेट में पत्थर छोड़ा जिससे रानी का क़त्ल होना था

मैंने बहुत तरह से सोचा पर कहानी का अधूरा रहना ही कहानी थी इसलिए भी उस लड़की के साथ नहीं सो पाने का मुझे इतना भी अफ़सोस नहीं जितना इस बात का है कि उस दिन बेकार ही दाढ़ी मूँछों और रिक्शे और सिगरेट पर फ़ालतू पैसे खर्च हो गए थे आखिर वो घोर गरीबी के दिन थे
( झूठा )
तो मैंने कौन सी कसम खाई है सच बोलने, लिखने की