गुरुवार, 13 अक्तूबर 2016

पर मरि कविता नहीं आती

इस कदर  गरीब हो गया हूँ
की किसी भूल गए पुराने दुःख से
उधार में आँसू लाता हूँ
शायद इसी  तरह से कोई कविता बने

तुम्हारे बहुत पास पास चक्कर काटते हुए
थककर खर्च हो गए बिम्ब की तरह
लेट जाता  हूँ
दो वाक्यों के बीच
तीसरी की राह जोहता हुआ
पर मरि कविता नहीं आती

बिल्ली आती है एक, तुम्हारी बला से
तुम्ही सम्हालो उसे
मैं तुम्हारे लिए मैगी बनाता हूँ

बाकि कविता जाए तेल लेने।

रोज़ एक कविता लिखूंगा

Artist - Myself
रोज़ रोज़
रात का जागना
को चेहरे से उतारकर कमोड में टट्टी के ट के साथ बहा देना
ये ज़िन्दा पानी का अँधेरे में डूबकर मर जाने की कहानी है

इतना भरा हुआ
जैसे कोई काम नहीं
की तरह रोज़ एक कविता लिखूंगा
सोचकर खुश हो जाता हूँ
मुझे रोज़ एक कविता लिखनी ही होगी
सोचकर दुखी हो जाने जैसा

इतनी
मेरे आस पास दुनिया
कितनी ??
जानने के लिए कविता लिखूंगा
सोचकर परेशान हूँ

कमोड में बैठकर सिगरेट फूंकते हुए.

आजकल बड़ी खुजली रहती है

Artist - Myself



तुम नाहक ही चिडचिडाती हो मेरी जान
तुम्हारे ख़त्म हो चुके शैम्पू की बोतल 
और चमक खो चुके सैंडिल के बीच
एक खाली खुली आलमारी है 
जिसे जाने तुम किन - कौन चीजों से 
पाटना - ढांपना चाहती हो
जबकि मैं तो बस इतना ही कह रहा हूँ
की मेरे पीठ के पिछले हिस्से में
जहाँ मेरे हाथ नहीं पहुँचते
ज़रा साबुन ही मल दो
आजकल बड़ी खुजली रहती है वहाँ.

मेरी जान

मेरी जान
तुम्हारी नज़र में मैं कुछ कुछ
हमारे पड़ोसी मुल्क सा हूँ
बेवफ़ाई के ताने सहता हुआ
एहतियातन बरते तुम्हारी मुहब्बत के सुकून में गुम
खाली खाली
खोया खोया.
देखो जानेमन
हम इस समय के सुविधाओं की पैदाइश हैं
हमारे पेट भरे हुए हैं
और अभी भी बहुत से ऐसे फूल हैं
जिनके नाम हमें याद नहीं
और एक तुम हो
जो बिस्तर को जंग का मैदान बना रक्खा है
यार अब टीवी बंद भी करो
आओ कुछ भी कुछ भी कविता लिखते हैं.

तुम्हारे जाने की दोपहर में

                                                                        Artist - Myself

तुम्हारे जाने की दोपहर में
हवा से भड भड करती एक खिड़की है ,
एक मरी हुई किताब
जिसकी कभी मैंने सुध नहीं ली.
अधूरी पेंटिंग
हमेशा मुझे डांटती हुई ,
और कमरे के बिलकुल बीचोंबीच
तार पर सूखता अंडरवेयर
और एक कन्डोम का पैकेट
जिसे कई बार गुस्से में फेंक दूँ सोचते हुए
ड्राअर में वापस रख चूका हूँ.

जब तुम आई थी की दोपहर पर भी एक कविता है

आओगी तो सुनाऊंगा.

हर दुःख की अपनी ही अलग भाषा होती है

Artist - Shailendra Sahu

हर मौसम की 
अपनी कुछ मक्कारियां होती हैं
अपनी यादें
और उदासियाँ
उबासियाँ
जैसे हर दुःख की अपनी ही अलग भाषा होती है
जिसमे हम अपने रोने को इस तरह लिखते हैं
की भीतर का खालीपन
आँख में उतरने से पहले ही सूख जाये
और तुम्हारा होना
या नहीं होना
बहुत पहले पढ़ी और पढ़कर भूल गई
कविता के याद की तरह सुनाई दे .

हर दिन तुम्हारे होने को

कभी कभी तो हम साथ थे की तरह सुनता हूँ.

मंगलवार, 26 जनवरी 2016

मह मह महकते मोगरे की तरह

                                                                           Artist - Myself





















मह मह महकते मोगरे की तरह
सूंघता हूँ तुम्हे
बहुत थका होने पर भी
भागकर चढ़ जाता हूँ सीढियाँ
चौथे माले के हमारे कमरे तक
रोज़ आती है एक अदृश्य गौरैय्या
तुम्हारे चहचहाने में शामिल
हमारे शामिल से गायब
उदासी जो मेरे साथ बड़ी हुई थी
कहीं रखकर भूल गया हूँ
कौन है जिसे याद कर मुस्कुराती हो
जब अपने जलते हुए सीने में नंगे पाँव दौड़ता हूँ
धीरे से फुसफुसाकर कह दिया करो
मैं थोड़ी देर और सो लूंगा
तुम थोड़ा सा और हंस लेना।