गुरुवार, 31 जनवरी 2013

जिस भाषा में हम खाते और हगते हैं

                                             Artist - Ashutosh Tripathy














हरा तालाब

- क्या सोच रहे हो?
मैंने उसके उदास चेहरे कि तरफ देखते हुए पुछा
- जंगल के बारे में.
उसने कहा और मै हँसने लगा
एक पल को उसने हैरान होकर मेरी तरफ देखा और फिर झटके से अपनी जेब में छुपाया हुआ चाक़ू निकालकर अपनी ही गर्दन में घोंप लिया और एकदम से हरे खून का फव्वारा छूट पड़ा, अगले पल में एक हरा तालाब था और उसके बीच में तैरता हुआ उसका गीला सीला सिर...
मै घबराकर जाग गया
कोई दरवाज़ा पीट रहा था
मैंने पूछा कौन?
आवाज़ आई
मै...कूड़े वाली.


कुतिया

- तुम मुझे फोन करना, मै नहीं उठाऊँगी. पर तुम फिर भी फोन करते रहना.
- और अगर मैसेज करूँ तो?
- तो उसे मै बिना पढ़े ही डिलीट कर दूंगी.
- तुम मुझसे चाहती क्या हो?
- कि तुम मुझे याद करते रहो ताकि मै अपना होना भूल ना जाऊं.
- कुतिया
- हाँ बस इसी तरह से...


बूढा जादूगर और कवि

उस बूढ़े जादूगर कि छड़ी कहीं गम हो गई थी और दुनिया में कवि होने का मतलब एक समृद्ध सम्पूर्ण और सेंटीमेंटल चुतिया होना था जबकि शहर सिर्फ एक शब्द था, सब लोग मुस्कुराकर एक दूसरे से मिलते थे और किसी बासी चुटकुले पर भी देर तक पेट पकड़कर हंस सकते थे और इन दिनों में मोमबत्ती बनाने वालों का बिजनेस धड़ल्ले से चल रहा था ये तो सिर्फ उस बूढ़े जादूगर कि खुशकिस्मती थी कि उसकी आँखों में मोतियाबिंद था और वो अखबार पढ़ने के नाकाबिल था. (और इस दुनिया कि बदकिस्मती कि वही एक आखिरी जादूगर था जिससे कुछ उम्मीद थी)

खैर...तो कवि गया उस जादूगर के पास बड़ी उम्मीद के साथ और लगभग गिड़गिड़ाते हुए कहा

प्लीज़ मुझे कोई ऐसी भाषा दो जो अब तक किसी ने न सुनी हो न पढ़ी हो जो कंही लिखा हुआ न हो जिसे आज तक किसी ने ना कहा हो..मैंने बहुत दिनों से कुछ नहीं लिखा मै कविता कहना चाहता हूँ...

बूढ़े जादूगर ने अपनी आँखें झिपझिपाइं और देर तक खाली हवा में कुछ ताकता रहा और फिर अचानक ही वंहाँ से चला गया और अपनी छड़ी कि तरह ही खुद भी खो गया... शायद उसके कान भी खराब थे.
  
चित्रहार

हरा नीला चमकीला पहाड़
और महुए कि तरह गमकता हुआ
दुःख
सुख
कि कामना करते हुए
मैंने एक लड़की से प्रेम किया
और पहले से ज्यादा अकेला हो गया
खो गया वो सब
जिन्हें लेकर मै यहाँ आया था
गहरे हरे नींद में
मैंने एक सपना देखा है
और थोड़ी देर पहले ही
बहुत लाल लजीज दुःख चखा है
और अब तुम सब भांड में जाओ
ये मेरे मरने का समय है.


जिस भाषा में हम खाते और हगते हैं

कवि से बड़ा बेशरम और मक्कार भला दूसरा कौन होगा, तो हमारा कवि नहीं मरा बल्कि कमरे का सारा कूड़ा निकालकर कूड़ेवाली को पकडाया जोकि एक पच्चीस साल कि सांवली सी जवान लड़की थी इसलिए भी हरामी ने उसे बीस रुपये अलग से दिए और कमरे के भीतर आकर बैठ गया. उसे अभी बहुत सी कवितायेँ लिखनी थी उसी भाषा में जिसमे हम खाते और हगते हैं.