शनिवार, 2 अप्रैल 2011

ये बसंत की शुरुआत थी .

                                                     Artist - Pramod Kashyap





















एक  दिन  मैंने  पहाड़  से  कहा -
पहाड़
मै  तुम्हारी  तरह  होना  चाहता  हूँ
सोना  चाहता  हूँ
भीतर  तक  हरे  नींद  से  लबालब  भरकर
रोना  चाहता  हूँ
इतना
की  भीतर  का  सारा  मैल  धुल  जाए
पहाड़
मै  तुम्हारी  ही  तरह  बड़ा  होना  चाहता  हूँ
बहुत  बड़ा
इतना
की  सारी  तकलीफें  और  दुख
छोटे  और  छिछोरे  जान  पड़ें

पहाड़  ने  मुस्कुराकर  मेरी  तरफ  देखा
और  आंखे  मूँद  ली
और  ढेर  सारे  पत्ते  एक  साथ  झरने  लगे .

दरअसल
ये  बसंत  की  शुरुआत  थी .

कहानी नहीं कविता है

                                 Artist- Myself




















(वो एक सर्कस था ,अजायबघर था, या कोई आर्ट ग़ैलरी, या अंधेरे मे चमकता मंच ? मुझे सचमुच याद नहीं )

किसी किसी दिन मै खुद को
किसी एक वस्तु की तरह पाता हूँ
इस्तेमाल के बाद किसी कपड़े के पोंछा हो जाने जैसा
ऐसे दिनों को मै
भविष्य खाते मे जमा कर देता हूँ
की "ऐसे भी दिन थे" की याद
फिर इस याद की जुगाली करते हुए
लिखता हूँ कविताएँ
पंछिटता हूँ नए झूठ
और मुसकुराता हूँ इस अश्लीलता पर
दांत निपोरकर
जी हाँ
कभी-कभी मै खुद को
रगड़ कर साफ किए हुए
कमीज़ के कॉलर की तरह पाता हूँ

और

कभी तो मै एक हरा जंगल हो जाता हूँ
(इसे एक जमी हुई हरी काई के चकत्ते जैसा भी मान सकते हैं )
शहद सने जंगल जैसा
ऐसे दिनों मे
मै धूप को सिर्फ धूप की तरह देखता हूँ
और उदासी का मतलब सिर्फ उदासी होता है
ये दिन "ऐसे ही दिन हुआ करें"
की चाह जैसे होते हैं
जी हाँ जी
कभी-कभी मै सिर्फ "मै" हो जाता हूँ

फिर?

फिर क्या?
ये कोई कहानी नहीं कविता है
जैसे कोई औरत हो
दिन भर के मजदूरी के बाद
बीड़ी के धुएँ मे सुस्ताती हुई

इतना कहकर
उस कवि ने
स्टेज पर माइक के तार से ही
अपना गला घोंट लिया
और मर गया
तालियों की गड़गड़ाहट मे
सिक्कों की छनक थी
और उस कवि की लाश
किसी बेजान वस्तु की तरह पड़ी थी
जबकि मुझे वो एक हरे जंगल के
दोपहर की झपकी लेने सा लगा ।

पर ये कहानी नहीं कविता है

और तालियों मे एक जोड़ी ताली मेरी भी थी
सो मै गिनती से बाहर हुआ
और जो असल बात है वो ये है की -
कवि तो बहुत पहले ही किसी रोज़ मर चुका था
और वो जिस औरत की चर्चा कर रहा था अपनी कविता मे
जी हाँ वही , भीगे ब्लाउज़ और
बीड़ी के धुएँ मे मुसकुराती वो औरत
कहानी नहीं
सचमुच मे एक कविता है.

सब कुछ के अघटे मे

                                                         Artist - Henri Rousseau
















मै तुम्हारे लिए लिखना चाहता हूँ

एक कविता

कि  देना चाहता हूँ तुम्हें शब्द

उनके रूप और गंध

कि  महसूस सकूँ जेहन मे

तुम्हारा रूप और गंध

मै लिखना चाहता हूँ

तुम्हारे लिए-

फूल
पत्ती
पेड़
पहाड़

और
बसंत के ये चमकीले दिन

कि  भटकते रहें पन्नों पर

सब कुछ के अघटे मे

और स्मृति की चाहना बची रहे.

कमरे की चुप्पी मे देह का अंधेरा

                                                  Artist- Myself




















कमरे की रोशनी मे
चीज़ें उतनी ही चुप होती हैं
जितनी कमरे के अंधेरे मे
जितनी आसमान के अंधेरे मे.

आसमान के अंधेरे मे रेंगते रहते हैं तारे
जैसे
देह के अंधेरे मे उँगलियाँ.

देह का अंधेरा
आसमान का अंधेरा है
कमरे की चुप्पी
देह की चुप्पी है.

शुक्रवार, 1 अप्रैल 2011

लाल कथरी पर सफ़ेद धागा लाईनदार

                                                      Artist - J. Swaminathan

















आसमान मे बहुत सारे तारे चमक रहे हैं
आँख मूंदता हूँ ,और दिख जाती है कथरी सिलती
गाँव की बूढ़ी अम्मा
जो पिछले बरस ही परलोक सिधार गई
लाल कथरी मे सफ़ेद धागा
जैसे काली चुनट पे
सलमा सितारा जड़ा हो
जैसे आसमान मे तारे चमक रहे हैं 
लाल कथरी पर सफ़ेद धागा लाईनदार
और बूढ़ी अम्मा के चेहरे की
लाईनदार झुर्रियां
गोरसी की आग मे तपी हुई
हल्की लाल दमकती
फिर कंपकपाती उँगलियाँ
झुकी हुई देह और
लुगरा के पीछे से झाँकते लटकते स्तन,
जैसे उसके कमर पे खूंसी चिल्हरदानी हो
लाल मटमैली मुचड़ी हुई
जैसे उसके कमजोर चेहरे पर
दीपदीप - झिपझिप करती दो आंखे हों ।
बूढ़ी अम्मा का लुगरा
(एकमात्र साड़ी, जिसे रोज़ तालाब मे नहाते हुए धोया और फिर पहन लिया)
हरे रंग का है...।
मै आँख मूंदकर देखता हूँ
लाल कथरी पर सफ़ेद धागे टंके हैं
आसमान मे जड़ा सलमा - सितारा
सफ़ेद फूल - पत्ती बन
बूढ़ी अम्मा के लुगरा मे छुप गए  हैं
आँख खोलता हूँ , हाथ सहलाते हैं
लाल कथरी को ,
पर टंके सफ़ेद धागे को
और मेरी सुबह हरे और लाल दोनों ही रंगो मे
रंगी हुई निकलती है ।

बाप रे.....दिल्ली की सड़क पर

                                                               Artist - Tulsi Ram

















एक बच्चा बस्ते का बोझ
पीठ पर उठाए
खुशी मे हाथ फैलाए भाग रहा है
बाप रे ...
दिल्ली की सड़क पर।
बस की खिड़की से दो आंखे टुकुर-टुकुर देखती हैं,
बस की खिड़की से,
दिल्ली की खिड़की खुलती है
दिल्ली की खिड़की से दिखते दृश्य मे
एक बच्चा पृथ्वी की अनंतता मे भाग रहा है
बस आगे निकल आती है
और खिड़की का फ्रेम बदल जाता है
दृश्य बदल जाता है
दिल्ली , दिल्ली ही रहती है
फिर भी
आंखे एक दिल्ली से दूसरी
दूसरी से तीसरी और जाने कितनी दिल्लियों पर
छलांग लगाती है
खिड़की के बाहर दृश्य बदल चुका है
पर वो बच्चा अब भी भाग रहा होगा
पृथ्वी का बोझ पीठ पर लिए
पृथ्वी की अनंतता मे
बाप रे.....।
दिल्ली की सड़क पर.