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Artist- Myself |
(वो एक सर्कस था ,अजायबघर था, या कोई आर्ट ग़ैलरी, या अंधेरे मे चमकता मंच ? मुझे सचमुच याद नहीं )
किसी किसी दिन मै खुद को
किसी एक वस्तु की तरह पाता हूँ
इस्तेमाल के बाद किसी कपड़े के पोंछा हो जाने जैसा
ऐसे दिनों को मै
भविष्य खाते मे जमा कर देता हूँ
की "ऐसे भी दिन थे" की याद
फिर इस याद की जुगाली करते हुए
लिखता हूँ कविताएँ
पंछिटता हूँ नए झूठ
और मुसकुराता हूँ इस अश्लीलता पर
दांत निपोरकर
जी हाँ
कभी-कभी मै खुद को
रगड़ कर साफ किए हुए
कमीज़ के कॉलर की तरह पाता हूँ
और
कभी तो मै एक हरा जंगल हो जाता हूँ
(इसे एक जमी हुई हरी काई के चकत्ते जैसा भी मान सकते हैं )
शहद सने जंगल जैसा
ऐसे दिनों मे
मै धूप को सिर्फ धूप की तरह देखता हूँ
और उदासी का मतलब सिर्फ उदासी होता है
ये दिन "ऐसे ही दिन हुआ करें"
की चाह जैसे होते हैं
जी हाँ जी
कभी-कभी मै सिर्फ "मै" हो जाता हूँ
फिर?
फिर क्या?
ये कोई कहानी नहीं कविता है
जैसे कोई औरत हो
दिन भर के मजदूरी के बाद
बीड़ी के धुएँ मे सुस्ताती हुई
इतना कहकर
उस कवि ने
स्टेज पर माइक के तार से ही
अपना गला घोंट लिया
और मर गया
तालियों की गड़गड़ाहट मे
सिक्कों की छनक थी
और उस कवि की लाश
किसी बेजान वस्तु की तरह पड़ी थी
जबकि मुझे वो एक हरे जंगल के
दोपहर की झपकी लेने सा लगा ।
पर ये कहानी नहीं कविता है
और तालियों मे एक जोड़ी ताली मेरी भी थी
सो मै गिनती से बाहर हुआ
और जो असल बात है वो ये है की -
कवि तो बहुत पहले ही किसी रोज़ मर चुका था
और वो जिस औरत की चर्चा कर रहा था अपनी कविता मे
जी हाँ वही , भीगे ब्लाउज़ और
बीड़ी के धुएँ मे मुसकुराती वो औरत
कहानी नहीं
सचमुच मे एक कविता है.