Artist- Joseph Beuys
वो हँसते हँसते मर जाने कि कल्पना करता था ,बाकि बच्चों कि तरह वो भी रोते हुए ही पैदा हुआ था हँसना तो उसने बाद में सीखा ,फिर भी लोगों के लिए ये यकीन करने में मुश्किल होता था कि वो एक सुखी और संतुष्ट आदमी है . वो हर वक्त मुस्कुराता हुआ या फिर हँसते हुए ही नज़र आता था,सिर्फ बातें करते हुए उसे बहुत कम ही देखा गया था मतलब कि बात करते हुए भी वो लगातार हँसता या मुस्कुराता रहता था .
उसके सारे रिश्तेदार बहुत पहले ही मर चुके थे और वो एक बड़े से अजनबी शहर में अकेले ही हँसते हुए दिन फांकता था .वैसे तो वो एक चित्रकार था ,छोटी मोटी,नई खुली आर्ट गैलरियों या फिर कुछ इने गिने पर्सनल बायरों को अपनी पेंटिंग्स बेचकर उसके रहने ,पीने ,फूंकने और खाने का जुगाड़ हो जाया करता था और उससे अधिक के लिए मेहनत करूँ ये सोचकर ही उसके भीतर थकान पसर जाती थी.तो कुलमिलाकर वो एक अजनबी अकेला और हँसता हुआ चित्रकार था जो अपने मिलने वालों में ऊब और उत्तेजना दोनों भाव एक साथ एक ही समय में पैदा करता था .
उसकी माँ के बारे में कहा जाता है कि वो शादी से पहले तक पागल थीं और शादी के बाद लगभग लगभग ठीक हो गई थीं पर मरने से पहले उन्होंने अपना पागलपन उसके पिता को दे दिया था,माँ के मरते ही पिताजी को कुछ हो गया था मतलब वो हर वक्त कुछ न कुछ बोलते बडबडाते रहने लगे थे और फिर एक दिन बोलते बडबडाते हुए ही मर गए उसी दिन शायद उसने हँसते हँसते मर जाने कि कल्पना कि होगी,दरअसल रोते रोते मर जाने कि कल्पना को उसने बहुत बार सिनेमा ,साहित्य और सस्तेपन में देख रखा था शायद इसीलिए उसने हँसते हँसते मर जाने कि कल्पना को चुना होगा .
पहली बार उसका हँसना सार्वजानिक तौर पर उसके टीचर ने नोटिस में लिया था जब वो १२ वी पास करने ही वाला था .
टीचर - सुनो,तुम मुझे हर क्लास में हँसते हुए ही क्यूँ दिखाई देते हो ?
चित्रकार - सर, मुझे चुप रहना पसंद नहीं
टीचर - ओह....., हाँ तो ठीक है अपने डेस्क के अगल बगल या आगे पीछे वालों से बात कर लिया करो , मै तुम्हे कुछ नहीं कहूँगा
चित्रकार - सर, मुझे बातें करना भी अच्छा नहीं लगता
टीचर - हम्म ... , अच्छा चलो ठीक है ,तुम हँसते रहा करो मुझे कोई परेशानी नहीं बस ये ध्यान रखना की धीरे हँसना मतलब की बाकि की क्लास को परेशानी न हो.
तो इस तरह उसके दिन ,दुपहरें,परिवार,रिश्तेदार धीरे धीरे सब बीत गए और अब वो जिस उम्र में था वंहा से बीता हुआ बेवकूफी भरा लगता था और आने वाले दिनों के बारे में सोचना बेकार और बेमतलब.
औरतों के मामले में वो थोडा खुशनसीब था ,उनके जांघो के बीच सर देकर भी वो हँसता रह सकता था और ये बात औरतों को पसंद आती थी दरअसल उस शहर की ज़्यादातर औरतों के भीतर एक अजीब सी asurachha की भावना थी इसीलिए वो शरीर पर झिलमिलाहट पोतकर ही सड़कों पर निकलती थीं ऐसे में उसकी हंसी उन्हें थोडा आश्वस्ति देता था की उनके आस पास सब कुछ इतना भी बुरा या भयानक नहीं .
खैर ..., वो जिस दिन मरा (हँसते - हँसते ), उस दिन भी वो किसी औरत के साथ ही था जिसे अपनी(सिर्फ) नंगी छातियों का चित्र बनवाना था .चित्र पूरा करते ही वो मर गया था और उससे पहले उन्होंने देर तक आपस में कुछ बातें भी की थी
औरत - तुम हर वक्त ऐसे हँसते हुए कैसे रह लेते हो ?
चित्रकार - क्यूँ, क्या तुम्हे बहुत दुःख है ?
औरत - नहीं ,दुःख तो नहीं है पर चश्मा उतारते ही मै उदास हो जाती हूँ .
चित्रकार - तुम्हारे पास क्या बहुत सारे चश्मे हैं ?
औरत - हाँ, अलग अलग शेड्स ,और डिजाइनों में.
चित्रकार - और क्या तुम्हारे घर में शीशा है ?
औरत - मेरा घर ही पूरा शीशों का है .
चित्रकार - हम्म ...मेरे कमरे में एक ही शीशा है वो भी टूटा हुआ उसमे मेरी पूरी हंसी भी कटे फिटे ढंग से दिखती है ,नया शीशा खरीदने का मन नहीं होता जब लगता है की ये हंसी या मुस्कराहट पुरानी पड़ गई तो किसी बच्चे की आँख में झांक लेता हूँ और नहीं , तो किसी झील पर झुक जाता हूँ . मेरी गली से बाहर निकलकर जो चौराहा पड़ता है वंहा एक बूढा मोची बैठता है वो जूतों को ऐसे चमकाता है की उन पर अपना असली चेहरा देख लो आज वाली हंसी मैंने कल ही उसके पोलिश किए हुए जूतों से उठाई है .
औरत - मै हर रोज़ अपना चश्मा बदलकर पहनती हूँ पर उदासी नहीं जाती
चित्रकार - तो उन्हें उतारकर अलग रख दो .
औरत - मैंने कोशिश की थी की अपनी छातियों को उतारकर अलग रख दूँ ,पर नहीं हुआ.
(चुप्पी)
ज़्यादातर आदमी जब मेरी छातियों की तरफ देखते हैं तो उनकी आँखों में रसगुल्ला, फद्फदाते हुए कबूतर,तोतापरी आम और जाने ऐसी ही कितनी उपमाएं चली आती हैं जो मुझे बिलकुल भी अच्छा नहीं लगता , तुम्हारा मुस्कुराना मुझे अच्छा लगा अब मै यंहा अपने चेहरे से ये चश्मा उतार सकती हूँ .
उस औरत के चश्मा उतारते ही पूरा कमरा अजीब सी खुशबू से भर गया ,चित्रकार मुस्कुराते मुस्कुराते हंसने लगा और हँसते हँसते नाचने लगा सिर्फ उसका चेहरा भर ही नहीं बल्कि पूरी देह हंस रही थी. उसके हाथ ,हाथों पर की ऊँगलियाँ ,ऊंगलियों में फंसा ब्रश ,ब्रश पर चढ़ा रंग , रंग पर चमकती धूप, और हवा और हवा में मौजूद सारे कण ,सब के सब हँसते हुए पागल हो रहे थे परदे , खिड़कियाँ , रंग ,कैनवास , ऐश ट्रे,टेबल ,कुर्सी ,फैन, गमले सब कुछ और इस हंसी को मै किसी भी उपमा ,अलंकार में नहीं बाँध सकता और इसी हंसी के दौरे में कैनवास पूरा करते करते ही वो कलाकार हँसते हँसते मर गया .
औरत को पहले पहल तो कुछ भी समझ नहीं आया ,वह उठकर कैनवास के पास आई ,पता नहीं उस कैनवास पर उस सनकी ने बनाया क्या था मतलब की बहुत सारे रंग फैले हुए थे जो देखा जाए तो कुछ भी नहीं था सिवाय उसकी सनक के पर अगर थोड़ी देर रूककर गौर से देखो तो उसमे बहुत कुछ दिखाई पड़ता था मतलब बस थोडा सा ठहरकर देखो तो जैसे की नदी,नाले,पहाड़,ग़ालिब,मीर,मुक्तिबोध,झरना,जंगल,खेत खलिहान,मैदान,उदासी,उबासी,नागार्जुन,गाँव,करेला,रखिया,स्वामीनाथन,झमेला,विनोदकुमार शुक्ल,साईकिल,गाडा,नीम,अमलताश ,आकाश,निर्मल वर्मा,पास पड़ोस,जोश ,खरोश,धूप ,ऊब,नींद,चाँद,नीला,रंग,गेंहू,धान,मेहनत,किसान, मन्नू भंडारी,धरती,घास,सितारे ,कछार,तेंदू,बोइर,मखना,बधाई,कटाई,छंटाई,चटाई,इस्मत चुगताई,मखना,बारी,कुआं , धुना ,धुंध,आजी,लालजी,वान गौग , तीवरा,चना,रामकुमार,लुगाई,दाई ,बढाई,पाश,पलाश,डोंगरी,छोकरी,अम्हा तालाब,शाम,तुलसी,दिया बाती,आम, कलसी,अमरुद,बारी,बथुआ,लाल भाजी,आजी......