गुरुवार, 26 जनवरी 2012

हुसैन बाबा सच सच बताइए , यही बात है न....

                                        Google Images






















हुसैन बाबा
सच सच बताइए
यही बात है न....
कि कंही एक कच्ची सड़क है
बहुत उबड़ खाबड़
और लंबी भी
जंहा आप इतने बरसों से चल रहे थे
वो भी नंगे पाँव
ज़रूर थक गए होंगे
तभी तो...
ये वही सड़क है न
जो आगे जाकर पक्के जामुन टपकाती है
दोनों तरफ खेतों कि लंबी कतारें
बीच बीच में आपके सुस्ताने के लिए
कड़क चाय कि गुमटियां
आपने ज़रूर इसी सड़क पर से देखा होगा
खेत कि मेढों पर से ओझल होती हुई
गजगामिनी को
और इसी सड़क पर तो आप मिले थे मदर टेरेसा से
जब वो अपने रोगियों के साथ टहलने आई थीं यंहा
क्या आपको इस सड़क का पता मुक्तिबोध ने दिया था
या लालटेन कि रौशनी में
छतरियों कि मरम्मत करते आपके उन बूढ़े बाबा ने
आपने अपनी ज़मीन बुनने के लिए
यंही से रंग उठाए थे न
बाप रे, कितना बोलते हैं आपके ये रंग
मै भी कभी कभी आपके इन बोलते रंगों से
अपने लिए नींद चुन लेता हूँ
आपकी चिंता यही थी न
कि शहर में सींगे उछालते वो बैल कंही इस सड़क को रौंदते हुए
इसका बालात्कार न कर दें
ऐसी कोशिशें तो सदियों से हो रही हैं
फिर भी ये सड़क महुए के फूलों से लदा रहता है
जामुन, सीताफल, अमरुद या आम हो
आज भी बच्चे इन्हें खरीदकर नहीं
बल्कि यंही से चुराकर खाते हैं
इसलिए आप परेशान न हों
आप ही देखो न
आपको इस सड़क से बेदखल करने कि कितनी साजिशें हुईं
और ऐसी अफवाहें तो मैंने भी सुनी थी
कि आपको यंह से तडीपार करके
किसी क्रांकीट के जंगल में भेज दिया गया है
पर मै जानता हूँ कि ये सब बस कोरी अफवाहें हैं
आप तो इसी सड़क पर चलते चलते अचानक से
यंहा कि हवा में घुल गए होंगे
आखिर जून का महीना है
आपको लगा होगा
कि ये हवा सख्त होकर बेकार में ही इन पेड़ों को
सता रही है , झुलसा रही है
चलो मै ही इस हवा में घुलकर इन पेड़ों को
थोड़ी ठंडक बख्शुं
सच सच बताइए .. यही बात है न..

ज़मीन हुसैन साहब कि एक चर्चित कृति 

शनिवार, 21 जनवरी 2012

उड़कर दूर जाते हुए


                                                             Artist- Uday Singh



















धूप ऐसी थी 
की रोटी पर घी की तरह चुपड़कर खा लो
और हवा
पुराने छूट गए शहरों को याद करने जैसी
मै एकटक उसे देखता हूँ
मुनगे की पतली टहनियों पर कलाबाजी करते
मै उसे देखता हूँ
वो अपने में शायद
कुछ बडबडाती हुई पंख झटकती है
और पीले टिकलियों की तरह कई पत्ते
हवा में तिरछे होकर चुपचाप झरते हैं
वो मुझसे अनजान है
मै खुश हो जाता हूँ
(या खुश होने का नाटक करता हूँ)
मै उसे देखता हूँ
और उदास हो जाता हूँ
(या उदास हो जाने का नाटक करता हूँ)
मै उसे देखता हूँ
उड़कर दूर जाते हुए.

सोमवार, 16 जनवरी 2012

तुम्हारा क्या होगा वीनस ?


                                  Artist- Man Ray
                                         












सुनो
सब
अब
मै अपनी ऊब को दूँगा
एक गमले की शक्ल
तुम उसमे रोप देना
नंगी वीनस (प्रेम की देवी) को
और इस तरह से मै दूँगा
अपनी ऊब को एक आकार
सभी दोगले कलाकारों की तरह मै भी
इस गमले को रखूँगा अपने नाक के ऊपर
दोनों आँखों के बिलकुल बीच में
और तुम ?
तुम्हारा क्या होगा वीनस ? 

बुधवार, 11 जनवरी 2012

बाबा


                         Baba Nagarjun













अगर मै सिर्फ लिखने के लिए लिखता हूँ
तो झूठ लिखता हूँ
जबकि मै सब कुछ सचमुच का चाहता हूँ
प्यार दोस्ती और दुनिया
सब कुछ सचमुच का.

कुछ बातें हैं
जो मेरी समझ से बाहर हैं
और मै उन्हें इसी तरह समझना चाहता हूँ
जैसे वो नहीं समझ में आतीं
फिर भी
अगर पसीने की भाषा
और भूख का अर्थ मेरी समझ से बाहर हैं
तो ये मेरी समझ का दोगलापन है
और आजकल इसी से सारा शहर झिलमिलाता है.

मै स्वामीनाथन के पहाड़ पर बैठी
चिड़िया हो जाना चाहता हूँ
वान गॉग के सूरजमुखी का गमला हो जाना चाहता हूँ
बाबा मै अपने चमकीले सपनों
और चाशनी भरी नींद से ऊब चुका हूँ
बाबा मुझे अपनी कविताओं का सत् दो
मै तुम्हारी कविता हो जाना चाहता हूँ
एक सचमुच की कविता.

फालतू दिनों में


                                                             Artist - Myself

















मै फालतू दिनों को भी कविता में
ज़रूरी दिनों की तरह लिखूंगा
की जैसे पूरी एक शाम बालकनी में
फालतू बैठे 
बच्चों का खेलना देखते हुए बिता देना
मै इस शाम को कविता में
किसी ज़रूरी शाम की तरह दर्ज करूँगा

अक्सर जो तुमसे कहना होता है
वो अनकहा ही रह जाता है
मै इस अनकहे को भी कविता में
किसी बहुत ज़रूरी बात की तरह लिखूंगा.

मै भीड़ को कविता में
भीड़ की तरह लिखने से बचूंगा
और लिखूंगा एक-एक आदमी
की जैसे एक-एक दिन से मिलकर
ढेर सारे दिन हो जाते हैं
मैं इन ढेर से खाली दिनों को खंगालकर
एक कविता निकालता हूँ
और उसे इस तरह लिखता हूँ
की जैसे वो एक ज़रूरी कविता का लिखा जाना हो.

सरई ,सागौन और महुआ के पेड़ों से लकदक


                                          Screen shot - In the mood for love 














तुम्हारे बारे में सोचते हुए
मै अपने बारे में सोचने लगता हूँ
तुम अभी क्या कर रही होगी
की सोच
मै अभी क्या करूँ
की धुन पर टूटता है
तुम नहीं होकर कैनवास में बदल जाती हो
और मै हूँ
कहते हुए रंग साकार होने लगते हैं
अक्सर ही तुम पर लिखूं
सोचते हुए
मै तुम्हे भूल जाता हूँ
और लिखता हूँ
धूप, नदी और जंगल
और उदासी.
कई बार तुम्हे सोचते हुए
मै बहुत दूर तक निकल जाता हूँ
कुरुवार ,नगोई, और बिटकुली तक घूम आता हूँ
अजीब है ये
की तुम हो और नहीं हो के बीच
ढेर सारे लम्पट से लगते दुःख हैं
और डब-डब सी रातें हैं
तुम हो और नहीं हो के बीच
मै है फैला हुआ
नींद से भरपूर
नीले जंगल की तरह
सरई ,सागौन और महुआ के पेड़ों से लकदक
महकता ,गमकता
और सांय-सांय करता हुआ.

कुरुवार,नगोई,बिटकुली मेरे गांव के आस पास के गाँवों के नाम 

मै भी प्रेम करना चाहता हूँ

   अपना कुछ पुराना लिखा हुआ पढकर अक्सर ही उस पर शर्म महसूस करता हूँ ,हालाँकि ये भी बहुत पुरानी कविता है २००४ में लिखी हुई पर इससे एक अजीब सा लगाव है शायद इसलिए भी आप लोगों के साथ शेयर कर रहा हूँ.




                                         Artist- Egon Sheily

















मै भी प्रेम करना चाहता हूँ
जैसा सब करते हैं
उसी तरह सचमुच का
की घंटों भटकते रहें सड़कों पर
एक दूसरे की चुप सुनते हुए
सन्नाटे के शोर में
मरते हुए पत्तों की आहटें पकड़ते हुए
गोबर की गंध महसूसते
हवा की नीलाई में साँस लेते हुए
दोपहर का दुःख बटोरते.

मै प्रेम करना चाहता हूँ
की पकड़े जाने की शर्मिंदगी हो
पहचान लिए जाने का सुख हो
और चुपके से
उसका नाम गुनगुना लेने का रोमांच.

मै इस तरह प्रेम करना चाहता हूँ
की महसूस सकूँ
बारिश में भूनते भुट्टे की महक
खेतों में दहकते पलाश के फूल
और पल - पल गिरते पीले पत्ते
पतझड़ी दिनों के.

मै प्रेम करना चाहता हूँ
की ढेर सारी आकांक्षाएं हों
की हिंसा हो
की पीड़ा हो
का शोर हो.
मै भी प्रेम करना चाहता हूँ
जैसा सब करते हैं
उसी तरह सचमुच का.


दुनिया नींद, सपना और पहाड़ है

                                     Artist - Myself





















मैंने पहाड़ कहने के लिए
अपना मुह खोल दिया
पहाड़ जित्ता बड़ा मुह
आँखे मुंद गईं
और तारे पहाड़ पर उतर आये
आँख में पहाड़ जित्ता बड़ा अँधेरा
पहाड़ में आँखों जित्ते तारे
ढेर सारे
मैंने फिर कहा - गढ़हा
और नींद के खोखल से निकाल लाया
एक सपना
ढेर सारे सपनो के बीच से
हाथी जित्ता बड़ा सपना
हाथी की परछाईं पहाड़ जित्ती
उतना ही अँधेरा
नींद में, गढ़हे में, सपने में

दुनिया नींद, सपना और पहाड़ है.