बुधवार, 5 दिसंबर 2012

दिल्ली कि स्वच्छता के प्रतीक

                        Artist - Myself






















वो बहुत दूर दूर से आते हैं दिल्ली
कमाने खाने और कुछ बचाने को
पहनते हैं चांदनी चौक के पटरी से खरीदी जींस
हँसते हैं अश्लीलता से
देखकर दिल्ली कि लड़कियों को
चिचोड़ते हुए पांच रुपल्ली आइसक्रीम
कभी लहकते हैं देखकर
रात में चमकता कनाटप्लेस
और घुमते हैं यूँ उन्मुक्तता से
मानो गाँव का बाजार हाट-हटरी हो
पर जल्द ही पहचान लेते हैं
बगल से गुज़रते लोगों कि नज़रें
और किनारे खड़े हो याद करते हैं
गाँव के बाज़ार हाट-हटरी को
फिर थककर लौट आते हैं और पसर जाते हैं
अपने अपने झोपड़पट्टियों में
ताकि सुबह समय पर पहुँच सकें
खोदने बनाने को दिल्ली
साफ़ करने को पखाने
धोने पोंछने को निजामुद्दीन और नई दिल्ली रेलवे स्टेशन
वो जवानी कि दहलीज़ पर खड़े
दिल्ली कि स्वच्छता के प्रतीक हैं.

सोमवार, 3 दिसंबर 2012

मै उसके साथ सो सकता था

                                                       Artist - Jiten Sahu 

















अकेलेपन में
खाली बैठे बैठे मै ऊब गया था
नींद कहीं नहीं थी
और टेबल पर डायरी पड़ी थी
सामने खिडकी खुली थी
बाहर रात थी और हवा
जिसमे काँपते जुड़ाते पेड़ खड़े थे.

मैंने अपनी ऊब मिटाने के लिए
डायरी खोला
पन्ने उलटे
पेन को आगे से नंगा किया
और दराज़ से
एक धारदार, नुकीला सा शब्द निकालकर
डायरी में टीप दिया
एक बहुत ही नरम
और गुदगुदा सा शब्द
तितली सा उड़ता हुआ
खिडकी के रास्ते
मेरी डायरी के उस पन्ने पर
छप्प से कूद गया
कुछ शरमाये से शब्द
जो इधर उधर छुपे बैठे थे
वे भी आकर
इन शब्दों के इर्द गिर्द पड़ गए
पीछे मेरे बिस्तर पर
लिहाफ़ ओढ़े कुछ शब्द और थे
वे भी ठिठुरते हुए आकर
उसी पन्ने पर बाकी शब्दों से सटकर लेट गए  
जब हाथों को गरमाने के लिए जेब में हाथ डाला
तो वहाँ भी कुछ शब्द
चिल्हर पैसों के साथ पड़े थे
उन्हें भी लाकर डायरी के पन्ने पर उलट दिया
कुछ शब्द तो बस आवारगी में
भटकते हुए से आ गए
तो कुछ ठहरकर
तमाशा देखने के लिहाज़ से ही वहाँ रह गए 
इस तरह थोड़ी ही देर में
शब्दों कि एक पूरी जमात पन्ने पर बिछ गई
अब मैंने इस खेल को बंद किया
मेरी ऊब अब तक झर चुकी थी
मैंने पेन को साबुत किया
और उसके घर में धर दिया
फिर अपनी आँखों से उन शब्दों को
छूने, सहलाने और चूमने लगा
और अचानक से देखता क्या हूँ
कि उस पन्ने पर
एक खूबसूरत सी कविता खड़ी थी
अजीब और अनोखे तेवर में
मुझे देखती हुई
मुझसे अलग
खुद अपने में सांस लेती हुई कविता.

अब कंही कोई ऊब और अकेलापन नहीं था
मै उसके साथ चैन से सो सकता था. 

मै हंस रहा था

                                Artist - Jiten Sahu




















एक दिन मै उदास था
बहुत उदास
और तब
एक प्यारी सी बच्ची मेरे पास आई
और अपनी बंद मुट्ठियाँ
मेरे आगे बढ़ाकर कहा
इनमे रंगीन तितलियों कि छुअन है
खट्टे इमली कि गंध
और कच्चे बेरों कि मिठास है
और मेरे मासूम गुड़ियों कि खिलखिलाहट भी 
कल रात ही इनमे मैंने सितारों को भिंचा था
और सुबह सूरज को
इन्ही मुट्ठियों से निकलकर उगना पड़ा है
तुम मेरी इन मुट्ठियों को खोलो
और अपने लिए
जिंदगी के कुछ मानी चुन लो
कुछ मुस्कुराहटें खींच लो
और बहुत हुआ अब हंस भी दो

हा हा हा ....
मै हंस रहा था.