अपना कुछ पुराना लिखा हुआ पढकर अक्सर ही उस पर शर्म महसूस करता हूँ ,हालाँकि ये भी बहुत पुरानी कविता है २००४ में लिखी हुई पर इससे एक अजीब सा लगाव है शायद इसलिए भी आप लोगों के साथ शेयर कर रहा हूँ.
मै भी प्रेम करना चाहता हूँ
मै भी प्रेम करना चाहता हूँ
जैसा सब करते हैं
उसी तरह सचमुच का
की घंटों भटकते रहें सड़कों पर
एक दूसरे की चुप सुनते हुए
सन्नाटे के शोर में
मरते हुए पत्तों की आहटें पकड़ते हुए
गोबर की गंध महसूसते
हवा की नीलाई में साँस लेते हुए
दोपहर का दुःख बटोरते.
मै प्रेम करना चाहता हूँ
की पकड़े जाने की शर्मिंदगी हो
पहचान लिए जाने का सुख हो
और चुपके से
उसका नाम गुनगुना लेने का रोमांच.
मै इस तरह प्रेम करना चाहता हूँ
की महसूस सकूँ
बारिश में भूनते भुट्टे की महक
खेतों में दहकते पलाश के फूल
और पल - पल गिरते पीले पत्ते
पतझड़ी दिनों के.
मै प्रेम करना चाहता हूँ
की ढेर सारी आकांक्षाएं हों
की हिंसा हो
की पीड़ा हो
का शोर हो.
मै भी प्रेम करना चाहता हूँ
जैसा सब करते हैं
उसी तरह सचमुच का.
यहां शर्मनाक कुछ नहीं है......स्वाभाविक व सार्थक रचना....
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