ज़रूरी दिनों की तरह लिखूंगा
की जैसे पूरी एक शाम बालकनी में
फालतू बैठे
बच्चों का खेलना देखते हुए बिता देना
मै इस शाम को कविता में
किसी ज़रूरी शाम की तरह दर्ज करूँगा
अक्सर जो तुमसे कहना होता है
वो अनकहा ही रह जाता है
मै इस अनकहे को भी कविता में
किसी बहुत ज़रूरी बात की तरह लिखूंगा.
मै भीड़ को कविता में
भीड़ की तरह लिखने से बचूंगा
और लिखूंगा एक-एक आदमी
की जैसे एक-एक दिन से मिलकर
ढेर सारे दिन हो जाते हैं
मैं इन ढेर से खाली दिनों को खंगालकर
एक कविता निकालता हूँ
और उसे इस तरह लिखता हूँ
की जैसे वो एक ज़रूरी कविता का लिखा जाना हो.
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