शुक्रवार, 12 अगस्त 2011


      
     रामकुमार - उदासी , पेड़ , पहाड़ और गंगा 


"जो भी प्रकृति से प्यार करता है ,उसे प्रकृति कभी निराश नहीं करती."
                                                                                    - वर्ड्सवर्थ


          देखो ,सोचो मत,कुछ भी मत सोचो,सिर्फ देखो,इसके गवाह बनो. एक मूक तटस्थ दर्शक और इस तरह हम सचमुच ही रामकुमार के चित्रों का इशारा समझने लगते हैं,उसमे खो जाते हैं. रामकुमार मेरे पसंदीदा चित्रकारों में से हैं तो इसका सीधा सम्बन्ध शायद मेरा अपना परिवेश भी है जंहा मेरा बचपन बीता. चारों ओर पहाड़ों से घिरा गाँव ,दूर-दूर तक फैली धान की हरी फसलें ,नदी,जंगल,धूसर मिट्टी और सर के ऊपर फैला अनंत नीला आकाश और यही सब मै रामकुमार के चित्रों में भी देखता हूँ,संयोग से उनका बचपन भी पहाड़ों पर ही बीता ,शिमला में. ये वही छवियाँ हैं जो उनके भीतर थीं और जिन्हें कैनवास तक पंहुचने में एक लम्बा सफ़र तय करना पड़ा . उन्होंने अपने कैरियर की शुरुआत एक लेखक के रूप में की और रंगों की दुनिया में शामिल हो गए . एक तरफ वो चित्र बनाते रहे तो दूसरी तरफ अपनी कहानियों में भी जीवन की त्रासदियों से उनकी  मुठभेड़ें होती रहीं . 


         प्रकृति में हर रंग मौजूद है ,रामकुमार के यंहा भी रंगों की अपनी ही एक दुनिया है ,उनके चित्रों में जैसे प्रकृति स्वंय ही प्रविष्ठ होती है ,इसके लिए उन्हें किसी तरह की कोई कोशिश नहीं करनी होती. रंगों की उनकी अपनी ही एक भाषा है ,जो सिर्फ उनकी अपनी है . एक जगह अपने साक्षात्कार में वो कहते हैं - " लाल रंग भी उदास हो सकता है ." और इस तरह रामकुमार अपने कैनवास में रंगों को अपनी ही एक अलग भाषा में अनूदित करने लगते हैं,जो न केवल दर्शकों को प्रभावित करता है बल्कि दर्शक इन चित्रों में अपने गाँव ,घर,नदी,पहाड़,जंगल सब पहचान सकता है. अपने चित्रों में वे कभी उदास नज़र आते हैं तो कभी प्रकृति की फड़फड़aहट को उसकी पूरी जीवन्तता और  मांसलता के साथ पकड़ते हैं और कभी तो वो हमें सिर्फ तटस्थ से दिखाई पड़ते हैं किसी ध्यानमग्न योगी की तरह . उनके चित्र हमें चमत्कृत नहीं करते  न ही हमें कुछ ढूँढने या जानने के लिए बाध्य करती  हैं बल्कि वो हमें अपने में ही शामिल कर लेती हैं और हमारी ऊंगली थामकर उन छूपे हुए कोनों तक लेकर जाती हैं जंहा कोहरे से ढंके पहाड़ हैं या जंगलों के बीच से गुज़रती पतली पगडंडियाँ  या पहाड़ी झरने का चुपचाप सा बहना . इन चित्रों को देखते हुए लगता है मानो हम समय और आकारों से परे किसी और ही दुनिया में हैं जिसकी प्रमाणिकता और ईमानदारी असंदिग्ध और अक्षुण है . 


            आज़ादी से पैदा हुए मोहभंग ने लगभग सभी कलाकारों ,लेखकों और बुद्दिजीवियों को प्रभावित किया था जिससे रामकुमार भी अछूते नहीं रहे थे शायद यही कारण है कि उनके शुरू के चित्रों में हमें उजाड़ ,उदास औए ऊबे ,तपे हुए असहाय चेहरे दिखाई देते हैं ,इन चित्रों में वो टूटा हुआ सपना था ,जो हज़ारों युवाओं ने आज़ादी को लेकर बुना था और ये चेहरे इन टूटे हुए सपनों कि बानगी ही था .उनके आरंभिक चित्रों में भारतीय माध्यम वर्ग , विचलित संत्रस्त  बेरोजगार युवा पीढ़ी ,शोषित शापित मज़दूर, उजाड़ मकानों के सामने खड़े बेघर लोग, नाउम्मीदी से भरी खिड़कियाँ, जीर्ण शीर्ण दरवाज़े और बेहद उदास शहर नज़र आता है और इन चित्रों के आगे खड़े हम भी उतने ही असहाय हो जाते हैं जितने इन चित्रों में उभरते चेहरे ,पर रामकुमार कभी भी दर्शकों से इन असहाय चेहरों के लिए कुछ मांगते नहीं सिर्फ इस अंधेपन के खिलाफ कैनवास पर उन्हें चित्रित करते हैं आखिर ये उनके स्वंय का भोगा हुआ यथार्थ भी था. इस दौर कि रचनाओं में दया और करुणा का भाव कभी भी बीमार किस्म कि चिपचिपी भावुकता से ग्रस्त नहीं हुआ बल्कि उनमे एक ख़ास किस्म का तीखापन है जो दर्शकों के भीतर दुःख,अपराधबोध और गुस्से का मिलाजुला भाव पैदा करते हैं. 



             " यह काफी नहीं कि तुम इस दुनिया को एक माया कि तरह अनुभव कर सको , तुम्हे माया के यथार्थ को भी जानना होगा. वास्तव में इन दोनों सत्यों को - यथार्थ कि माया और माया के यथार्थ को एक साथ और एक समय में पकड़ने कि कोशिश करनी चाहिए . तभी यह संभव हो सकेगा कि हम दुनिया के साथ पूरी तरह जुड़कर भी पूरी तरह निस्संग रह सकें ."
 रामकुमार के भाई और प्रख्यात कथाकार निर्मल वर्मा कि डायरी के ये अंश मुझे रामकुमार के चित्रों के सन्दर्भ में बेहद सटीक जान पड़ता है.जंहा एक ओर वे अपने शुरुआती चित्रों में " यथार्थ कि माया " को पकड़ते हैं तो वंही दूसरी ओर १९६० में बनारस कि यात्रा ने जैसे " माया के यथार्थ " से उनकी मुलाक़ात करा दी .


       १९६० में जब रामकुमार बनारस जाते हैं तो अचानक ही उन्हें अपने चित्रों के लिए एक नई उर्वर  ज़मीन देखने को मिलती है . गायों कि धूल उड़ाती झुण्ड, मंदिर कि घंटियाँ,घाट पर अधनंगे नहाते साधू-सन्यासी,सामान्यजन और उनकी तर्कातीत श्रद्धा,और पाप और पुण्य का लेखा-जोखा,पुराने मकान और गलियां,विधवाएं और मणिकर्णिका के घाट , जलते हुए शवों पर विलाप करते हुए परिजन और पार्श्व में चुपचाप बहती गंगा. ये जैसे उनके लिए जीवन और मृत्यु की सीमा रेखा थी . एक अनूठा मायालोक जंहा गंगा और उसके घाट और शहर और उसमे बसते लोगों की दिनचर्या सब आपस में ऐसे घुली मिली थीं की उन्हें एक दुसरे से अलग करके देखना असंभव था ,जंहा हर दृश्य अपने में एक कम्पोजिसन ,रंगों और रेखाओं का अनूठा रचना संसार था  . यंहा रामकुमार अपने अनुभवों की गहराई में जाकर देखने की एक नई ही भाषा ईजाद करते हैं ,जिस तरह राजस्थान ने हुसैन के रंगों में प्राण फूंके कुछ इसी तरह बनारस के अनुभव ने रामकुमार को एक नई उर्जा दी.
वे स्वंय एक जगह लिखते हैं - "मैंने सपने में भी नहीं सोचा था कि यह मेरे लिए इतना महत्वपूर्ण होगा ,सिर्फ एक कलाकार के रूप में ही नहीं बल्कि एक मनुष्य होने के नाते भी. इसकी छाया एक लम्बे अरसे तक मेरे मन पर बनी रही ." उन्होंने १९६०-64 के बीच बहुत से बनारस के सिटीस्केप्स बनाए और थोड़े थोड़े अंतरालों में अक्सर वो बनारस भी जाते रहे ,हम अब तक उनके लैंडस्केप्स में बनारस कि छवियों को ढूंढ सकते हैं . बनारस पर वो निरंतर काम करते रहे जाने के बाद भी बार -बार लौटकर बनारस आते रहे , शायद यही " माया का यथार्थ " है .


           रामकुमार का व्यक्तित्व दुसरे कलाकारों कि भांति कभी विवादस्पद नहीं रहा ,वे बहुत ही संकोची स्वभाव के हैं और अपने बारे में या अपनी रचना के बारे में ज्यादा नहीं कहना चाहते .  अपने चित्रों के सन्दर्भ में रामकुमार कहते हैं - "  जब कभी उनके(चित्रों) विषय में कुछ प्रश्न पूछे जाते हैं ,तो ईमानदारी के साथ कुछ भी कहना मुझे लगभग असम्भव सा जान पड़ता है. जब मै स्वंय ही इनके बारे में कुछ नहीं जानता तो दूसरों को क्या बतला सकता हूँ ,सिवाय इसके कि इसकी  रचनाप्रक्रिया क्या थी ? "
निर्मल वर्मा के शब्दों में - 

 " प्रकृति का कोई अर्थ नहीं है वह या उसका अर्थ उसकी अनिवार्यता में निहित है ,जो है वही उसका अर्थ है . जब कोई कलाकृति इस अनिवार्यता को उपलब्ध कर लेती है तो वह इतने सम्पूर्ण रूप से अर्थवान हो जाती है कि उसे अर्थहीन भी कहा जा सकता है ."
 रामकुमार कि कला  प्रकृति कि तरह ही अपनी अनिवार्यता को  उपलब्ध कर पाने में सक्षम रही है. निसंदेह वे एक महान कलाकार हैं तथा आज भी कलाकार के रूप में सक्रिय हैं , हमारी पीढ़ी के लिए वो एक दिशानिर्देशक कि तरह  हैं . उनका स्वास्थ्य हमेशा इसी तरह अच्छा बने रहे इसके लिए हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं. 








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