शुक्रवार, 26 अगस्त 2011

बैल

                                   Artist - Myself













उस अदबी आदमी ने 
बैल न बनने की एवज में 
छोड़ा घर/पत्नी/बच्चे 
और उस छोटे से शहर को भी 
तब वो बुद्ध था,
उस आदमी ने 
जीवन की छोटी-छोटी आवश्यकताओं को दी
 तिलांजलि 
चला आया शहर 
और तब वो गाँधी था ,
उसने खूब लिखा दलितों पर 
नारे लगाए सेक्युलरिजम के 
अपनी पत्रकारिता के बल पर 
उघाड़े टूटपूंजिये  नेताओं के चेहरे 
लिखी कहानियां/कविताएँ/लेख
तब वह पाश था ,
इसी तरह वो बनता रहा बहुत कुछ 
उसने चुना अपने लिए एक स्वर- विरोध का
चुनी भाषा - विरोध की 
उसके पास थे बिलकुल नए और चुनिन्दा तेवर - विरोध के 
जिसका अभी बाज़ारीकरण नहीं  हुआ था 
और जो सिर्फ उसी के पास  थी 
फिर हुआ यूँ 
की वह दिखने लगा टी.वी./पत्रिकाओं/अख़बारों में 
हर ओर चर्चा थी उसकी और
उसके इस नए तेवर की 
फिर एक दिन वो ले आया शहर 
अपनी पत्नी/बच्चे/परिवार को
और अब
 वह पति/पिता और बैल था.

3 टिप्‍पणियां:

  1. दो साल पहले की बात थी....

    वो अपने ब्याह से कुछ खुश नहीं थी

    शायद वो किसी और को पसंद करती थी

    लेकिन....उसने अपने घर में बताया भी तो नहीं था

    अब होना क्या था रचा लिया ब्याह

    लगा ली मेहँदी उसके लिए

    जिसे वो जानती भी नहीं थी

    बस अपने घर की ख़ुशी के लिए

    अब... ब्याह के दो साल बाद पता चला है कि

    वो खुश है,और माँ भी बन गयी हैं

    वो लड़का जिसे वो कभी पसंद किया करती थी

    मिलता रहता है और हम घंटो बैठकर बातें करते है

    हाँ...कभी-कभी वो उस लड़की को भी याद किया करता है

    और...हमेशा यहीं कहता रहता हैं

    '' कहानी के आखरी में सब ठीक हो ही जाता है ''



    साधारण सी लड़की ....रानों

    नीतिन मनमोह.

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  2. टेबल पर चाय की गिलास रखी हुई थी
    उँगलियों के बीच आधी सिगरेट
    फ़सी जल रही थी
    चाय और सिगरेट शायद इंतज़ार में थे
    कब वो होंटो से लगे
    लेकिन .....
    कम्बख्त दिमाग़ में कुछ नया आये तो
    उसे चाय की चुस्क्की
    और सिगरेट के गर्म धुंवे
    से ताज़ा करूँ ....
    कुछ लिखा ना गया
    मैं चल उठा
    बेचारी चाय वहीँ पड़ी-पड़ी ठंडी हो गयी
    और... सिगरेट वो तो उँगलियों से छुटकर
    राख़ हो चुकी थी

    नीतिन मनमोह -

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