शुक्रवार, 3 जून 2011

चिड़ियों की भाषा


मेरे क्लास में है
दोपहर की एक भरी-पूरी नींद
मेरे क्लास में है
एक पपीते का पेड़
जिसके कच्चे - और पके दोनों ही फल
खूब मिठाते हैं
मेरे क्लास में है
एक, दो पंक्तियों का गीत
जिसे सुबह से शाम तक
हम सभी गुनगुनाते रहते हैं
मेरे क्लास में है 
खूब चमकती हुई आँखे
ढेर सारी हंसी का शोर
कांच के टुकड़ों सा चमकता धूप
खूब मीठा धूप
जो हमारे क्लास के बाहर वाली लान पर
सबसे ज्यादा ठहरता है .

मेरे क्लास के बच्चे(बच्चे नहीं हैं वो )
यानि की मेरे दोस्त
इंसानों की नहीं
बल्कि चिड़ियों की भाषा में बात करते हैं .

मेरे क्लास के दोस्त
पता नहीं 'उदासी ' शब्द का अर्थ
जानते भी हैं या नहीं
हालाँकि ये शब्द मेरे लिए तो बिछौना है
पर उनके बैग के किसी खाने में
मुझे इस रंग की कोई डिब्बी नहीं मिली
(जाने कंहा छुपाकर रखते हैं साले .......)

खैर,
मेरे क्लास के सारे बच्चे (सॉरी, बच्चे नहीं हैं वो)
चिड़ियों की भाषा में बात करते हैं
बस कभी-कभी ही ऐसा होता है
जब मुझे उनकी भाषा समझ में नहीं आती
क्या पता तब वो इंसानी भाषा का इस्तेमाल करते हों.

सूरजमुखी लिखता हूँ

                                                                    Artist - Van Gogh


















मै कुछ नहीं सोचते हुए 
किसी हरे जंगल को घोंटकर 
पी जाना चाहता हूँ  
जैसे वान गाग कभी-कभी 
ताज़ा घोलकर रखे हुए रंग गटक जाता था

समूचे आसमान को निचोड़कर 
इकठ्ठा हुए नीले रंग से 
कुल्ला, शौच, और नहाने जैसा
ज़रूरी 
(या गैरज़रूरी)
काम निपटाना चाहता हूँ 
की सुथरा लगूं

और चूँकि कहने को मेरे पास कुछ भी नहीं है 
इसी मारे अपनी सभी चुप्पियों को चुनकर 
एक चीख की तरह कुछ बुनता हूँ 
और उसे कविता कहते हुए 
सूरजमुखी लिखता हूँ .

एक और हरा, मुलायम, उल-जुलूल सपना

                                   Artist - Myself























क्या मुझे इस बात की सफाई देनी होगी
की उस पौधे को 
मैंने बिना किसी  फल की कामना किये बोया था.

ये भी हो सकता है की 
अपने नाख़ून कुतरते हुए 
उनके बीच जमा हुआ मैल भी मैंने चाट लिया हो 
और अब मेरे भीतर 
एक सूखी  हुई नदी है 
जिसकी रेत पर
बकरियों की लेडियां बिखरी पड़ी हैं
और  मै सिर्फ 
नकली शब्दों का धंधा करता हुआ 
एक नामर्द कवि हूँ , जिसका कोई पाठक न हो. 

या फिर शायद 
कंही कुछ छुट गया है
कुछ रह गया है
जैसे एक टूटा हुआ पुल 
एक बिगड़ी हुई घडी 
और भीतर से भरा हुआ 
खाली बदबूदार समय
जिसमे अपना ही चेहरा, पहचान न पड़ता हो
(और ये लिखते हुए मै थोड़ी झिझक महसूसता हूँ)
की मै अपने ही बुने हुए 
उल -जुलूल सपनो का 
एक हारा   हुआ नायक हूँ 
 मेरी आँखों का पानी 
कुछ नहीं सिर्फ 
बासी ,बची-खुची नींद के दो चहबच्चे हैं 
और वो पौधा 
इन्ही चह्बच्चो  के पानी से सींचा हुआ 
एक और हरा ,मुलायम ,उल-जुलूल सपना है 
जिसे सचमुच , मैंने बिना किसी कामना के बोया था.

उदासी इतनी भी बुरी बात नहीं


                                                           Artist - Myself



















देखो
मै तुम्हे उमगते हुए पत्तों का 
बहुत कच्चा कोमलपना देता हूँ 
और फिर 
अपनी उम्र पूरी कर लेने पर 
उनका झरना

देखो तो सही 
की लोग मुस्कुराते हुए 
कितने अच्छे लगते हैं 
और सच कहूँ 
तो उदासी इतनी भी बुरी बात नहीं.

शनिवार, 2 अप्रैल 2011

ये बसंत की शुरुआत थी .

                                                     Artist - Pramod Kashyap





















एक  दिन  मैंने  पहाड़  से  कहा -
पहाड़
मै  तुम्हारी  तरह  होना  चाहता  हूँ
सोना  चाहता  हूँ
भीतर  तक  हरे  नींद  से  लबालब  भरकर
रोना  चाहता  हूँ
इतना
की  भीतर  का  सारा  मैल  धुल  जाए
पहाड़
मै  तुम्हारी  ही  तरह  बड़ा  होना  चाहता  हूँ
बहुत  बड़ा
इतना
की  सारी  तकलीफें  और  दुख
छोटे  और  छिछोरे  जान  पड़ें

पहाड़  ने  मुस्कुराकर  मेरी  तरफ  देखा
और  आंखे  मूँद  ली
और  ढेर  सारे  पत्ते  एक  साथ  झरने  लगे .

दरअसल
ये  बसंत  की  शुरुआत  थी .

कहानी नहीं कविता है

                                 Artist- Myself




















(वो एक सर्कस था ,अजायबघर था, या कोई आर्ट ग़ैलरी, या अंधेरे मे चमकता मंच ? मुझे सचमुच याद नहीं )

किसी किसी दिन मै खुद को
किसी एक वस्तु की तरह पाता हूँ
इस्तेमाल के बाद किसी कपड़े के पोंछा हो जाने जैसा
ऐसे दिनों को मै
भविष्य खाते मे जमा कर देता हूँ
की "ऐसे भी दिन थे" की याद
फिर इस याद की जुगाली करते हुए
लिखता हूँ कविताएँ
पंछिटता हूँ नए झूठ
और मुसकुराता हूँ इस अश्लीलता पर
दांत निपोरकर
जी हाँ
कभी-कभी मै खुद को
रगड़ कर साफ किए हुए
कमीज़ के कॉलर की तरह पाता हूँ

और

कभी तो मै एक हरा जंगल हो जाता हूँ
(इसे एक जमी हुई हरी काई के चकत्ते जैसा भी मान सकते हैं )
शहद सने जंगल जैसा
ऐसे दिनों मे
मै धूप को सिर्फ धूप की तरह देखता हूँ
और उदासी का मतलब सिर्फ उदासी होता है
ये दिन "ऐसे ही दिन हुआ करें"
की चाह जैसे होते हैं
जी हाँ जी
कभी-कभी मै सिर्फ "मै" हो जाता हूँ

फिर?

फिर क्या?
ये कोई कहानी नहीं कविता है
जैसे कोई औरत हो
दिन भर के मजदूरी के बाद
बीड़ी के धुएँ मे सुस्ताती हुई

इतना कहकर
उस कवि ने
स्टेज पर माइक के तार से ही
अपना गला घोंट लिया
और मर गया
तालियों की गड़गड़ाहट मे
सिक्कों की छनक थी
और उस कवि की लाश
किसी बेजान वस्तु की तरह पड़ी थी
जबकि मुझे वो एक हरे जंगल के
दोपहर की झपकी लेने सा लगा ।

पर ये कहानी नहीं कविता है

और तालियों मे एक जोड़ी ताली मेरी भी थी
सो मै गिनती से बाहर हुआ
और जो असल बात है वो ये है की -
कवि तो बहुत पहले ही किसी रोज़ मर चुका था
और वो जिस औरत की चर्चा कर रहा था अपनी कविता मे
जी हाँ वही , भीगे ब्लाउज़ और
बीड़ी के धुएँ मे मुसकुराती वो औरत
कहानी नहीं
सचमुच मे एक कविता है.

सब कुछ के अघटे मे

                                                         Artist - Henri Rousseau
















मै तुम्हारे लिए लिखना चाहता हूँ

एक कविता

कि  देना चाहता हूँ तुम्हें शब्द

उनके रूप और गंध

कि  महसूस सकूँ जेहन मे

तुम्हारा रूप और गंध

मै लिखना चाहता हूँ

तुम्हारे लिए-

फूल
पत्ती
पेड़
पहाड़

और
बसंत के ये चमकीले दिन

कि  भटकते रहें पन्नों पर

सब कुछ के अघटे मे

और स्मृति की चाहना बची रहे.