शनिवार, 18 फ़रवरी 2017

कभी कभी शामें ऐसे भी आती हैं




लगातार बोलते रहने से थक जाने के बाद
बहुत घूम लिए की तरह घर लौटता हूँ
एक-एक कर अपनी नाकामियां गिनता हूँ
और खुश होते हुए
खिड़की के बाहर दीखते स्विमिंग पूल में 
चार गोते लगाकर
मर जाता हूँ .
मुझे बहुत बार डूबकर मर जाने के सपने आये हैं
आते रहते हैं
जीते जी मर जाने की कल्पना में
मैं एक आत्ममुग्ध कसाई हूँ
 तुम इतनी हसीन
“आज तुम्हारे टट्टी का रंग क्या था”
वो पूछकर हँसता है
 “कितना आसान है सब”
कहकर सुला मटकती हुई
बड़ी अदा से खिड़की के बाहर उतर जाती है
(मैं एक बार फिर से बताता हूँ की “सुला” मेरी बिल्ली का नाम है)
मैं फ्रिज खोलकर फिर बंद कर देता हूँ
दीवारों को थपथपाकर चुप रहने को कहता हूँ
“एक दिन और दोपहर की बात हो
तो परदे मूंदकर आराम हो ले
पर ये शामें रोज़ आती है”
मैं खिड़की के बाहर स्विमिंग पूल में डूबकर मरने से पहले
 बेचैनी से खिड़की के कान में कहता हूँ
“तुम्हे नए चेहरे की ज़रुरत है”
“- कल रविवार है
पक्का डॉक्टर के पास जाऊंगा
तीन – चार घंटे तो सिर्फ अखबार पढ़कर ही काटे जा सकते हैं
मेरी आँखों में खुजली है
बैक्टीरिया इन्फेक्सन.”
- कहकर
मैं किसी छिपे हुए गायब चीज़ के पीछे छुप जाता हूँ
“कितने खूबसूरत हो तुम”
फुसफुसाती हुई हवा
कूदकर मेरे चेहरे से होती हुई
कमरे में बिखर जाती है
मैं फेफड़े खोलकर सांस लेता हूँ
कभी कभी शामें
ऐसे भी आती हैं.

गुरुवार, 13 अक्टूबर 2016

पर मरि कविता नहीं आती

इस कदर  गरीब हो गया हूँ
की किसी भूल गए पुराने दुःख से
उधार में आँसू लाता हूँ
शायद इसी  तरह से कोई कविता बने

तुम्हारे बहुत पास पास चक्कर काटते हुए
थककर खर्च हो गए बिम्ब की तरह
लेट जाता  हूँ
दो वाक्यों के बीच
तीसरी की राह जोहता हुआ
पर मरि कविता नहीं आती

बिल्ली आती है एक, तुम्हारी बला से
तुम्ही सम्हालो उसे
मैं तुम्हारे लिए मैगी बनाता हूँ

बाकि कविता जाए तेल लेने।

रोज़ एक कविता लिखूंगा

Artist - Myself
रोज़ रोज़
रात का जागना
को चेहरे से उतारकर कमोड में टट्टी के ट के साथ बहा देना
ये ज़िन्दा पानी का अँधेरे में डूबकर मर जाने की कहानी है

इतना भरा हुआ
जैसे कोई काम नहीं
की तरह रोज़ एक कविता लिखूंगा
सोचकर खुश हो जाता हूँ
मुझे रोज़ एक कविता लिखनी ही होगी
सोचकर दुखी हो जाने जैसा

इतनी
मेरे आस पास दुनिया
कितनी ??
जानने के लिए कविता लिखूंगा
सोचकर परेशान हूँ

कमोड में बैठकर सिगरेट फूंकते हुए.

आजकल बड़ी खुजली रहती है

Artist - Myself



तुम नाहक ही चिडचिडाती हो मेरी जान
तुम्हारे ख़त्म हो चुके शैम्पू की बोतल 
और चमक खो चुके सैंडिल के बीच
एक खाली खुली आलमारी है 
जिसे जाने तुम किन - कौन चीजों से 
पाटना - ढांपना चाहती हो
जबकि मैं तो बस इतना ही कह रहा हूँ
की मेरे पीठ के पिछले हिस्से में
जहाँ मेरे हाथ नहीं पहुँचते
ज़रा साबुन ही मल दो
आजकल बड़ी खुजली रहती है वहाँ.

मेरी जान

मेरी जान
तुम्हारी नज़र में मैं कुछ कुछ
हमारे पड़ोसी मुल्क सा हूँ
बेवफ़ाई के ताने सहता हुआ
एहतियातन बरते तुम्हारी मुहब्बत के सुकून में गुम
खाली खाली
खोया खोया.
देखो जानेमन
हम इस समय के सुविधाओं की पैदाइश हैं
हमारे पेट भरे हुए हैं
और अभी भी बहुत से ऐसे फूल हैं
जिनके नाम हमें याद नहीं
और एक तुम हो
जो बिस्तर को जंग का मैदान बना रक्खा है
यार अब टीवी बंद भी करो
आओ कुछ भी कुछ भी कविता लिखते हैं.

तुम्हारे जाने की दोपहर में

                                                                        Artist - Myself

तुम्हारे जाने की दोपहर में
हवा से भड भड करती एक खिड़की है ,
एक मरी हुई किताब
जिसकी कभी मैंने सुध नहीं ली.
अधूरी पेंटिंग
हमेशा मुझे डांटती हुई ,
और कमरे के बिलकुल बीचोंबीच
तार पर सूखता अंडरवेयर
और एक कन्डोम का पैकेट
जिसे कई बार गुस्से में फेंक दूँ सोचते हुए
ड्राअर में वापस रख चूका हूँ.

जब तुम आई थी की दोपहर पर भी एक कविता है

आओगी तो सुनाऊंगा.

हर दुःख की अपनी ही अलग भाषा होती है

Artist - Shailendra Sahu

हर मौसम की 
अपनी कुछ मक्कारियां होती हैं
अपनी यादें
और उदासियाँ
उबासियाँ
जैसे हर दुःख की अपनी ही अलग भाषा होती है
जिसमे हम अपने रोने को इस तरह लिखते हैं
की भीतर का खालीपन
आँख में उतरने से पहले ही सूख जाये
और तुम्हारा होना
या नहीं होना
बहुत पहले पढ़ी और पढ़कर भूल गई
कविता के याद की तरह सुनाई दे .

हर दिन तुम्हारे होने को

कभी कभी तो हम साथ थे की तरह सुनता हूँ.