शनिवार, 23 जून 2012

मिट्ठू



बहुत छोटे शहरों की दुपहरें बहुत लंबी हुआ करती हैं और अगर छुट्टियों के दिन हों तो आप इन दुपहरों को सिर्फ सुन सकते हैं घर में बंद रहते हुए, कम से कम मेरी उम्र की मज़बूरी यही थी , इसलिए मै दोपहर भर लेटे लेटे इन आवाजों से दोपहर की तस्वीर बनाता रहता, अभी जो गुज़रा वो फैजाबाद की चुडियां बेचता फेरीवाला है थोड़ी देर में टिफिन के डब्बे खडखडाता हुआ बंधू सोनी गुजरेगा वो सिविल लेन के सारे दफ्तरों में टिफिन पहुंचाता है फिर बर्फ वाला भोंपू बजाता हुआ और बीच बीच में मेहर चाचा की नशे में डूबी आवाज़ सुनाई  देती रहेगी मेहर चाचा सुबह से पीना शुरू करते हैं और रात तक पीते हैं वो हमारे घर के सामने वाली सड़क के उस पार रहते हैं  हर दो तीन  साल में एक नई चाची ले आते हैं और साल पूरा होने से पहले ही वो किसी और के साथ भाग जाती है.

मेहर चाचा बहुत अकेले हैं और उन्हें कसबे के सब लोग मेहरारू मरान सिंग कहकर बुलाते हैं और तब वो हँसते हुए नशे में कोई गीत गाकर जवाब देते हैं पता नहीं क्यूँ उस वक्त वो और भी अकेले दिखाई देते हैं.. वैसे बहुत सी बातें तब मुझे नहीं पता थीं दरअसल उन दिनों मै बहुत छोटा था अगर कहूँ की उस दोपहर के दिन तक मै बहुत छोटा था तो ज्यादा सही होगा. और  देखा जाए तो सही कुछ भी नहीं था पिताजी की सख्त हिदायत थी की मै दोपहर बाहर नहीं निकल सकता और मुझे ज़बरदस्ती ही सोने की बेकार कोशिश करते हुए दोपहर काटना होता था .मै माँ को बताता रहता की चिंटू कितना बुद्धू है और माँ मुझे राजकुमार और राक्षस की कहानियां सुनाती , माँ की कहानियों में हमेशा एक राजकुमारी भी होती थी जिसकी कितनी खूबसूरत थी की कल्पना मेरे कल्पना पर निर्भर था मेरी कहानियों में मै माँ को सिर्फ चिंटू ,बिट्टू और गोलू की बेवकूफियां ही गिनाता और मिट्ठू से जुडी बातें गोल कर जाता, क्यूँ ? पता नहीं.

"माँ क्या शादी शादी खेलना बुरी बात है?"

मैं माँ से पूछता हूँ और माँ मुस्कुरा देती है ,माँ मेरी हर बात पर मुस्कुरा देती है ,माँ का मुस्कुराना मुझे अच्छा लगता है ,माँ का मुस्कुराना पिताजी को भी अच्छा लगता है  माँ को  मैं अच्छा लगता हूँमाँ को पिताजी भी अच्छे लगते हैं माँ को जब मुझ पर प्यार आता है तो मुझे अपने पास सुला लेती हैंपिताजी को जब माँ पर प्यार आता है तो वो भी ऐसा ही करते हैं, मुझे माँ पर प्यार आता है तो मै उनकी गर्दन पर हाथ डालकर सोता हूँ ,एक पैर उनकी कमर के गिर्द लिपटाते हुए और उनकी बगलों का पसीना सूंघने लगता हूँपिताजी पता नहीं क्या करते होंगे.

माँ के भीतर एक अजीब सी गंध बसती है ,मै किसी भी गंध को माँ से पहचानता हूँ. दरअसल उस दिन और दोपहर  से पहले तक मै किसी भी गंध को माँ से पहचानता था .मै जिस उम्र में था वंहा हर पहचान परिवार के बीच से उपजता था . बाहर की दुनिया में शामिल होने के लिए मै माँ की कहानियों से होकर गुज़रता था. एक सचमुच की दोपहर में जाने के लिए बहुत सी झूटमूठ की दुपहरों को पार करना होता था . और इस तरह गिनती शुरू हो जाती , एक दो ,तीनचार......मै मन ही मन गिनने लगता और राजकुमारी किले की खिड़की से अपने बाल नीचे फैला देती,दोपहर अलसाए कुत्ते की तरह आँगन में आकर पसर जाता और कुँए के पास वाला अमरुद नशे में खड़े डोलता रहता ,कभी कभी मै उसके पत्ते को हथेलियों में रगड़कर नाक के पास लाकर सूंघता ,मुझे कच्चे  अमरुद की गंध अच्छी लगती है ,मुझे मिट्ठू भी अच्छी लगती है,मिट्ठू को कोई अच्छा नहीं लगता ,ऐसा वो कहती है पर मै यकीन नहीं करता .

मिट्ठू की बहुत सी बातों पर मै यकीन नहीं करता मिट्ठू को मै अच्छा लगता हूँ ,उसकी इस बात पर मै यकीन करता हूँ . इकहत्तर,बहत्तर,तिहत्तर....खर्र..खर्र..सौ की गिनती पूरी होने से पहले ही माँ की साँसे पटरी पर लग जातीं,मै अधूरी कहानी के बीच राजकुमारी के बालों को पकड़कर किले की दीवार चढ़ने की कोशिश करने लगता . मिट्ठू आँगन में होगी मेरा इंतज़ार करते हुए, राजकुमारी किसका इंतज़ार करती है ,राजकुमारी की खिडकी दीवार की बहुत ऊँचाई पर है,
"कोई दीवार इतनी ऊंची नहीं की मै उसे फलांग न सकूँ " ऐसा चिंटू कहता है जब हम पदारू के बाग़ में आम चुराने जाते हैं  मै मिट्ठू को बताता हूँ  .

"चिंटू तो बौड़म है" ऐसा मिट्ठू कहती है . मिट्ठू सही कहती है . मिट्टू हमेशा सही कहती है ,फिर भी मै मिट्ठू की बहुत सी बातों पर यकीन नहीं करता ,हालाँकि मिट्ठू को बहुत कुछ पता है यंहा तक की उसे मरकर जिंदा होना भी आता है ,ऐसा मैंने खुद देखा है .

"तुझे पता है शादी के बाद दूल्हा दुल्हिन क्या करते हैं?" मिट्ठी पूछती है ,मिट्ठू कीआंखे बहुत बड़ी बड़ी हैं जो सवाल पूछते वक्त अक्सर गोल हो जाती हैं फिर और बड़ी लगती हैं  ,किले की दीवार बहुत ऊंची है ,इतनी ऊंची की खिड़की पर खड़ी राजकुमारी दिखाई नहीं पड़ती है ,मै बहुत छोटा हूँ.
 "क्या होता है?" मै पूछकर और छोटा हो जाता हूँ.

" मैं तुझे सिखा दूंगी ,ठीक है."मिट्ठू फुसफुसाकर कहती है. मिट्ठू हर बात को किसी रहस्य की तरह से कहती है  कि जैसे ये बात सिर्फ उसे पता है और वो सिर्फ मुझे बता रही हो और इसके लिए मुझे उसका अहसान मानना चाहिए और उससे हमेशा डरकर रहना चाहिए वैसे ये सच है की मै मिट्ठू से डरता हूँ फिर भी उसके साथ रहना मुझे अच्छा लगता है पता नहीं क्यूँ !

पिताजी ताश खेलने के लिए माँ से पैसे हमेशा फुसफुसाकर मांगते हैंमाँ पूरी दोपहर सोती है ,पिताजी अपने आफिस से छुट्टी वाले दिन पूरी दोपहर ताश खेलते हैं ,मै पूरी दोपहर मिट्ठू की बुलाहट का इंतज़ार करता हूँ,गर्मी की दोपहरें हमेशा फुसफुसाहट की तरह होती हैं ऐसा मै सोचता हूँ और राजकुमारी खिलखिलाने लगती है .खिलखिलाती हुई राजकुमारी और भी ज्यादा खूबसूरत लगती होगी ये मै किले की दीवार के नीचे ही खड़े खड़े सोचता हूँ माँ खूबसूरत नहीं हैं पर मै उनसे बहुत प्यार करता हूँ,राजकुमारी को प्यार करूँ इसके लिए उसका खूबसूरत होना ज़रूरी है . मै राजकुमारी के लंबे बालों को पकड़कर उसी के सहारे से ऊपर चढ़ने लगता हूँ किले की दीवार पर पैर  जमाते हुए और खिड़की तक पहुँचने से पहले हर बार फिसलकर नीचे आ जाता हूँ,और राजकुमारी का चेहरा नहीं देख पाता वो ज़रूर बहुत खूबसूरत होगी ऐसा मै सोचता हूँ और माँ को सोता हुआ छोड़कर बहुत धीमे से दबे पांव दरवाज़े से सांकल उतारता हूँ .

"श्श्श्ह कोई शोर नहीं ,मै तुम्हे एक ऐसी जगह लेकर जाउंगी जहाँ  हम छुपकर सुहागरात मना सकें." मिट्ठू मेरे कान में कहती है उसकी सांस से कान में गुदगुदी होती है मै खिलखिलाता हूँ ,ये राजकुमारी राक्षस के कैद में रहकर भी ऐसे खिलखिलाती क्यूँ है ,खिल,खिल,खिल..खड़,खड़,खड़...जब हवा चलती है तो आँगन में अमरुद के कसैले पत्ते झरते हैं और मै राजकुमारी के बालों को थामे हुए किले की दीवार पर इधर से उधर डोलता हूँ.
 "सुहागरात वो क्या होता है?"

"बुद्धू ,तुझे तो कुछ भी नहीं पता "  मिट्ठू झूठमूठ के गुस्से में मुझे झिड़कती है  और मै सचमुच के शर्म से कुँए में कूद जाना चाहता हूँ ,और कुँए के पाट पर बैठ जाता हूँ और मिट्ठू को देखता हूँ किसी ऐसे अपराधी की नज़र से जो किसी और के अपराध की सज़ा काट रहा हो और मिट्ठू मुझे ऐसे किसी पुलिसवाले की नज़र से दिलासा देती है जिसे उस बेचारे अपराधी से पूरी हमदर्दी हो .किले की दीवार पर खिड़की बहुत ऊँचाई में है ,मुझे अचानक से ही घबराहट होती है पर मै राजकुमारी का चेहरा भी  देखना चाहता हूँ और इस रोमंच की कल्पना से डरता भी हूँ . राजकुमारी की खिलखिलाहट में अजीब सा रहस्य  है .

"फुरफुन्दी(dragonfly) पकड़ें क्या मिट्ठू?" मै इस जादू को तोडना चाहता हूँ .इस जादू से निकलना चाहते हुए बंधा रहता हूँ .

 "शादी शादी खेलना है या नहीं?" मिट्ठू सचमुच के गुस्से में कहती है .

 "हाँ खेलना तो है." मै सचमुच के डर से हाँ कहता हूँकभी कभी मिट्ठू से बहुत डर लगता है. मिट्ठू पूरी दोपहर भटकती फिरती है उसकी माँ के मरने के बाद से उसके पिताजी  उससे कुछ नहीं कहते ,और देर से काम से लौटते हैं, मिट्ठू बहादुर है .राजकुमारी सचमुच में खिलखिलाती है या झूठमूठ में ये भी मै जानना चाहता हूँ .पर मै डरपोक हूँ.

" अगर बच्चा पकड़ने वाला आ गया तो माँ कहती है दोपहर में अकेले घुमते बच्चों को वो पकड़कर ले जाते हैं ", मैं  माँ के पास भी लौटना चाहता हूँ ,राक्षस के लौटने से पहले ,मुझे राक्षस से भी डर लगता है और राजकुमारी की खिलखिलाहट रहस्य है ,इस रहस्य में जादू है ,मै इस जादू को तोडना चाहता हूँ ,मै इस जादू में बंधा रहता हूँ ,दौड़कर भागना भी चाहता हूँ पर मिट्ठू के पीछे पीछे घिसटता रहता हूँ.वो मुझे उस चमत्कारी जगह पर लेकर जाएगी जो उसने अकेले भटकते हुए कंही खोजा है और वंहा जाकर हम सुहागरात मना सकेंगे हालाँकि मुझे सचमुच नहीं पता की ये होता क्या है पर ज़रूर कोई खराब चीज़ होती होगी तभी तो मिट्ठू मुझे इतनी दूर लेकर जा रही है,पर पता नहीं क्यूँ खराब चीजों को जानने के लिए मै हमेशा ही ज्यादा उत्सुक रहता हूँ और साथ ही धुकधुकी भी लगी रहती है पर मै अभी घिसट रहा हूँ मिट्ठू के पीछे पीछे एक हाथ से अपनी निक्कर सम्हाले हुए और दुसरे हाथ में पकडे हुए डंडे से ज़मीन पर निशान खींचते हुए ,जैसे अपने पीछे कोई गुप्त सन्देश छोड़ता  चल रहा घोड़े पर सवार बहादुर राजकुमार, ये हमारे आँगन के पीछे वाली कोलकी है  से होकर मामा सेठ के खेत को पार करते हुए उधर  रेलवे लाइन की तरफ जिधर ढेर सारे परसा के पेड़ हैं ,बेसरम के झुण्ड और चुरमुटों की झाड़ियाँ उनके बीच से रास्ता बनाते हुए, मिट्ठू के दुपट्टे से बंधे बंधे एक मरगिल्ले पिल्ले की तरह.

 "जब कोई बड़ा साथ हो तो बच्चा पकड़ने वाले नजदीक नहीं आते" मिट्ठू मुस्कुराते हुए कहती है ,मुस्कुराती हुई मिट्ठू और बड़ी लगती है मै और छोटा लगता हूँ ,किले की दीवार और ऊंची होती जाती है ,राजकुमारी की खिलखिलाहट और नजदीक आती जाती है और फिर चुरमुट के झाड़ियों के बीच पंहुचकर एक झालर खुल जाता है ,एक सुरक्षित मांद ,प्राकृतिक घोसला. 

"मैंने ये झालर खोजा है ,पर तुम्हे मै यंहा आने दूंगी,लेकिन मेरी किरिया(कसम) जो अगर इसके बारे में किसी को बताओ तो. अब से ये दूल्हा दुल्हिन का घर है."

"मिट्ठू मुझे डर लग रहा है" मै रुआंसा हो जाता हूँ ,मिट्ठू मुझे झालर के भीतर ले आती है ,मै कमर से नीचे  खिसकती अपनी फटी हुई निक्कर को ऊपर खींचता हूँ,मिट्ठू मेरे दुसरे  हाथ में पकड़ा हुआ डंडा छीनकर दूर फेंक देती है और पकड़कर अपनी ओर खींचती है.

"तू दूल्हा  मैं दुल्हिन " मिट्ठू कहती है और मुझे पकड़कर नीचे बिठा देती है झालर के भीतर अखबार से फाड़कर निकाला  हुआ कृष्ण राधा की एक तस्वीर है और कच्चे बेर की गुठलियाँ बोरकुट और आमकूट की पन्नियाँ  शायद हमारे आने से पहले वंहा कोई कुत्ता सुस्ताकर गया  होगा ये मै झालर के भीतर की गंध से जान लेता हूँ ,मुझे अचानक ही से बहुत डर लगता है  मिट्ठू को डर नहीं लगता, मिट्ठू मिडिल स्कूल  में पढ़ती है,राजकुमारी के बाल कितने मुलायम हैं ,मिट्ठू कित्ती बड़ी है तभी तो सलवार कमीज़ पहनती है ,मै अपने हाथ बहार खींच लेना चाहता हूँ,मिट्ठू कितनी गन्दी है वो अपने पजामे के भीतर कुछ नहीं पहनती ,राजकुमारी ने मुझे अपने बालों सहित ऊपर खींचना शुरू कर दिया है ,मैं रोना चाहता हूँ पर शर्म के मारे रो नहीं पाताराजकुमारी खिलखिलाकर हंसती है ,मिट्ठू हंसने और रोने के बीच गले से अजीब आवाजें निकालती है ,उसकी पकड़ मेरी कलाइयों  पे सख्त होती जाती है मुझे राक्षस के घोड़े की टापें सुनाई पड़ती हैं,वो नजदीक आ रहा है और कभी भी मुझे दबोच सकता है, मैं राजकुमारी के बाल छोड़ देता हूँ और किले की दीवार से नीचे की ओर गिरने लगता हूँ,मिट्ठू के बांह पर मेरे दांतों के निशान हैंमिट्ठू दर्द से चीखती है ,राजकुमारी खिलखिलाती है ,मै भागता हूँ ,झालर से निकलकर घास पर सहकारी दूकान के पीछे वाले मैदान से होते हुए भागता जाता हूँ,बदहवास और राक्षस मेरे पीछे है ,रेल के पटरियों के पार ,बेसरम के झुण्ड ,सेमल के बगल से होकर मामा सेठ के खेत की मेढ़ों पर गिरते पड़ते और आँगन की टूटे  दीवार को फांदते हुए और ये आ गया हमारे घर का  कुआँ ,नहीं मुझे अभी नहीं मरना,मुझे माँ के पास पहुंचना है और ये धडाक,  दरवाज़ा खुला ,दो खपरे टूटकर छाँदी(छत) से नीचे गिरती है ,फिर सांकल चढाती  हुई ऊँगलियाँये ऊंगलियों में क्या है,अजीब सा लिसलिसा मै उँगलियों को कमीज़ पर पोंछता हुआ, एक अजीब सी गंध. 

मैं हाथ झटकता हूँ छिः छिः और फिर से नाक के पास जाती ऊँगलियाँ ये गंध तो सचमुच ही बहुत अजीब है रहस्यमई ,जादुई राजकुमारी के खिलखिलाहट की तरह अजीब ही गंध...मेरी अब तक की जानी हुई गंधों से अलग, मेरी अब तक के दुपहरों से अलग ,माँ पिताजी और परिवार की पहचान से अलग ,मेरे खुद का जाना हुआ या कह लीजिए की मिट्ठू के द्वारा मुझ पर खोला हुआ एक और रहस्य ,मिट्ठू का बताया हुआ पर मिट्ठू से अलग मेरा अपना निजी रहस्य. मुझे भले ही अब कोई मेहर चाचा के बीवियों के भाग जाने का रहस्य न भी बताए तो कोई बात नहीं मेरा भी रहस्य है जो  मैं कभी किसी को नहीं बताऊंगा आखिर मुझ पर मिट्ठू की किरिया (कसम) जो है .
पोस्ट में प्रयुक्त कलाकृति उदय सिंह की है.

रविवार, 17 जून 2012

तितली


बहुत पुरानी कविता है, डायरी में पड़े बिसुर रही थी तो आज ब्लाग पे लगा रहा हूँ...  J

                                                Artist- Pramod Kashya
                                               










  





एक उदास दोपहर में
अपनी ऊबी हुई आँखों को मलते हुए
मैंने अखबार उठाया
जिसके पहले पन्ने पर
इक्कीसवीं सदी का सबसे बर्बर पशु
स्वघोषित नायक
मुस्कुराती आँखों से मुझ पर हंस रहा था
मैंने आईने में अपनी बिगड़ी हुई शक्ल देखी
और अखबार को गुस्से में आकर डस्टबिन में फेंक दिया
और अपनी उकताहट को कमीज़ की तरह उतारकर
खूंटे से टांग दिया
फिर टीवी खोलकर अश्लील चित्र की प्रतीक्षा करने लगा
पर ये क्या
वहाँ तो रंग था
केसरिया
जलते हुए मकान, मरते हुए किसान
बम और लाशें और धुँआ
ईराक में, अफगान में, गुजरात में
ये तो हद है कहकर मैंने टीवी बंद कर दिया
या तो इस दुनिया को बर्दाश्त करो या छोड़ दो
ये तो पागलपन है
कहकर मै बालकनी में चला आया
खुदखुशी करने
तो क्या
खिडकी से झांककर भी आत्महत्या की जा सकती है
और तभी जवाब की तरह
खिडकी के रास्ते एक नाज़ुक सी तितली
मुझे आश्चर्य में डालती हुई कमरे के भीतर चली आई
मै हैरान
अरे ये क्या
उसके पंखों पर मेरे गाँव का पहाड़ था
और धुला हुआ साफ़ सफ़ेद खरगोश जैसे दिन
बाप रे
उसके पंखों पर
धरती का समूचा हरापन था
और आसमान की नीलाई
उसकी आँखें उम्मीद थीं
और उसके फड़फड़ाहट में जीवन
ये कोई सपना तो नहीं
मैंने आँखें झिपझिपाई
और दरवाज़ा खोलकर
धूप को भीतर आने दिया
धूप के साथ मिलकर
तितली ने इन्द्रधनुष के रंग बिखेरे
मैंने खुद से फिर कहा
अरे पगले
ये तो कोई सपना ही है
कुछ देर पहले ही तो मैंने देखा था
केसरिया रंग
और गिरते हुए बुद्ध की प्रतिमा को
तितली मुस्कुराई
मानो उसने जान लिया हो
की मै क्या सोच रहा हूँ
और कमाल है
की मैंने उसकी मुस्कराहट को देखा
शीशे जैसा साफ़,शफ़्फ़ाक़
जैसे किसी बच्चे की निश्चिन्त नींद हो
जैसे बूढी दाई के हाथ की झुर्रियाँ हों
जैसे माँ के खरहरी झाड़ू का शोर हो
सुबह में जगाता हुआ सा
एक नन्ही सी तितली में इतनी जान
की पूरी दुनिया की उदासी बुझा दे
वाकई
एक नन्ही सी तितली
पूरी एक दुनिया है
रंगों से भरी हुई
जहाँ सेमल और पलाश के फूल हैं
जहाँ घर जैसे दिन हैं
और चाहना की आँखों जैसी शामें
और वहाँ झंडे नहीं हैं
और न ही झूठ मूठ के नारे
और वो घटिया हंसी वाले लोग भी नहीं
जो कई कई मुखौटे बदलकर
टीवी और अखबारों में अश्लीलता से मुस्कुराते हैं
और झूठे सपने दिखाते हैं
सचमुच एक नन्ही सी तितली
पूरी एक दुनिया है..


मंगलवार, 22 मई 2012

भागकर जाने के लिए बहुत सी जगहें थीं


      

                            Artist- Myself
 भागकर जाने के लिए बहुत सी जगहें थीं जंहा कभी भी जाया जा सकता था इसलिए इस बात से कोई तसल्ली नहीं मिलती थी की कंही जाया जा सकता है. तसल्ली के लिए मरे हुए लोग थे और बहुत लंबी दुपहरें, जिसमे सारी शिकायतें झूठी लगती थीं और एक असली बात को स्वीकारने से पहले बहुत सी नकली बातों को फिर-फिर दुहराना होता था....इसीलिए वो अपने कमरे में बैठा रहता था, लिखने की मेज़ पर आधा जागते और आधा सोते हुए. यंहा मई की दुपहरें इतनी चुप होती थीं की कुत्ते भी सड़क पर से बिना भौंके ही गुज़र जाते थे और खिडकी के बाहर खड़े पेड़ हम जिंदा हैं कहने भर के लिए बीच बीच में अपना सर हिला देते थे. बस इतना ही..

बेटा- आप?
बाप- हाँ मै, क्यूँ...हैरान से लग रहे हो?
बेटा- नहीं तो, मैंने कल ही आपको सपने में देखा था.
बाप- मै तुम्हे रोज ही देखता हूँ.
बेटा सपने में?
बाप- नहीं वैसे भी.
बेटा- मै यकीन नहीं करता?
बाप- तुमने कभी नहीं किया.

  सचमुच उसने अपने बाप पर कभी यकीन नहीं किया उसे लगता था की किसी दिन भी वो सोकर उठेगा और वे उसे और उसकी माँ को छोड़कर जा चुके होंगे. और होता भी यही था अचानक एक दिन वो सुबह सोकर उठता और माँ बतातीं की पिताजी पंजाब के किसी शहर चले गए जंहा दूर दूर तक सरसों के खेत होते हैं और शायद कुछ दिनों बाद हम भी वो खेत देखें. खेतों से उसे बचपन के दिन याद आते थे और चिथडे काले कपड़ों में लिपटे बिजूका जो खेत और दोपहर के सन्नाटे में अकेले उदास खड़े रहते थे, जिनसे उसे तब बहुत डर लगता था.

बेटा- बचपन में करता था, तब आप से डरता भी बहुत था.
बाप- सुनकर मुझे खुश होना चाहिए?
बेटा- अपनी खुशी छुपाना आता है आपको.
बाप- पर तुम्हे अपना डर छुपाना नहीं आता, तुम हमेशा से ही डरपोक थे.
बेटा- आप मर चुके हैं और एक भूत की बातों का मै बुरा नहीं मानता वैसे मैंने तो अपने आस पास के जिंदा लोगों की बातों पर भी ध्यान देना बंद कर दिया है..
बाप- हा हा हा... तुम बिलकुल अपनी माँ की तरह हो, हर बात की सफाई देते हो, बोलते हुए भी मिनमिनाते हो.
बेटा- क्या हम कुछ और बात नहीं कर सकते??
बाप- नाटक बंद करो, जिस बात के लिए बुलाया है वही बात कर रहा हूँ...
 
   कौन सी बात?? वो सोचने लगता, पिछली बार हम कहाँ अटक गए थे कंहा रुक गए थे. वो रसोई में चला आता, नल खोलते ही गरम पानी की धार, दरअसल गर्मी के दिनों में दोपहर होते तक छत के ऊपर लगे टंकी का पानी गर्म हो जाता था वो नल से मुह लगाकर पानी पीता और आकर बिस्तर पर लेट जाता. कौन सी बात ?? हाँ मुझे एक सुराही लाना है बाज़ार से ताकि ठंडा पानी पी सकूँ. वो सोचता और ठन्डे पानी से उसे माँ की याद आती. माँ को वो बहुत कम याद करता था, उसने हमेशा अपने पिता के बारे में ही सोचा जब वो जिंदा थे तब भी और उनके मरने के बाद भी. उसे कभी कभी लगता था की वो सचमुच थोडा बहुत अपनी माँ की तरह है. माँ को शायद बहुत सी शिकायतें रही हों पर वो उनके साथ ही मर गई उन्होंने कभी नहीं कहा की उन्हें इस या उस बात से कोई शिकायत है.
  
बाप- उसका बोलना, होना, करना, जीना सब कुछ माफ़ी मांगने जैसा था, मुझे उसके लिए शर्म आती थी.
बेटा- और मुझे आपके लिए अब तक आती है...
(चुप्पी)
वो आप से प्यार करती थीं.

(ये शब्द कहते ही उसे अजीब सी शर्म आई.)

बाप- प्यार??? ज़रा ध्यान से इस शब्द को सुनो, तुम्हे ये बहुत सस्ता सा सुनाई नहीं पडता. अगर तुम्हारे पास है तो तुम बेशर्मी से इससे इंकार कर सकते हो, ये मोडेस्टी है. और अगर नहीं है तो कविताएँ लिखो इस पर, कहानिया बुनो या बेकार ही उन लोगों के लिए रोने का दिखावा करो जो किसी फालतू के दंगों में मर रहे हैं या भूख से आत्महत्या कर रहे हैं...

  दिखावा ?? क्या सचमुच वो सब दिखावा था, वो सोचते हुए मेज़ के पास की अपनी कुर्सी खींचकर बैठ जाता. खिडकी से बाहर देखता, अभी जामुन के फल कच्चे हैं , बारिश आने में वक्त है..
  
बाप- तुम्हे याद है तुम अपने फाइनल ईयर की छुट्टियों में घर आए थे और सारा दिन घर से बाहर शहर की सड़कों पर भटकते थे और फिर रात गए तक छत पर. तुम सारा दिन बौखलाए हुए से रहते थे. जाने से एक रात पहले तुमने अपनी माँ से झगडा भी किया था झगडे की वजह थी मेरे दूसरे औरतों के साथ सम्बन्ध. हाँ.... मैंने भी इसे इसी तरह से समझा ,मेरे दूसरे औरतों के साथ सम्बन्ध….
बेटा- बेकार में भूमिका क्यूँ बाँध रहे हैं,सीधे पॉइंट पर आइए
बाप- ठीक है तो सुनो, मुझसे तुम्हारे नफ़रत की वजह एक बेटे के तौर पर कभी थी ही नहीं, तुम जलते थे उस आदमी से जिसके घर में एक बीवी है जो उस आदमी की हर बात मान लेती है वो पचास की उम्र का है और घर से बाहर वो किसी दूसरी औरत के साथ सोता है उसका एक बेटा है २४ साल का जो कंही बाहर पढता है और जिसमे इतनी हिम्मत नहीं की वो अपने पिता से सामने खड़े रहकर सवाल कर सके क्यूंकि वो सामाजिक सन्दर्भ में कहें तो विनम्र है या शायद कायर है . तुम उस आदमी को देखकर हैरान रह जाते हो तुम समझ नहीं पाते की आखिर तुम मे क्या कमी थी तुम्हे क्यूँ ठुकरा दिया गया आखिर तुम भी उसी आदमी का ही हिस्सा हो जो पचास की उम्र में भी तुम्हारी समझ से कहूँ तो ऐश कर रहा था, तुम चाहते थे उस आदमी के भीतर गिल्ट हो एक खराब पिता और कमीना पति होने के लिए तुम चाहते थे की..
बेटा- बस बहुत हो गया, आप मुझसे इस तरह बात नहीं कर सकते.

 किस तरह की बात?? वो सोचने लगता, वो सोचता बहुत था. क्या माँ भी बहुत सोचती थीं?? नहीं.. चुप रहने का मतलब सोचना नहीं होता. पर वो बहुत सोचता था इसीलिए उसे गुस्सा भी आता था और शर्म भी और बाद में पछतावा भी फिर उसे जलन होती थी उन लोगों से जो नहीं सोचते थे या कम सोचते थे वो सारे लोग उसे अपने पिता की तरह लगते थे जो खुद पर कभी शक नहीं करते थे वे बस मान लेते थे की चलो ये तुम्हारा सच है और ये मेरा वाला सच है अब गाना गाते है.

 बेटा-  हाँ ये सच है, मै थोडा बहुत माँ की तरह हूँ मै प्यार नहीं कर सकता, तब मै बौखलाया हुआ था हताश था शायद वो मेरी उम्र थी अगर मेरी समझ से कंहू तो मै सिर्फ आपकी तरह ऐश करना चाहता था पर मै आपकी तरह भी नहीं होना चाहता था की सब कुछ दिखावा है कहते हुए टीवी बंद कर सकूँ. आपका अकेलापन मुझे डराता था दूसरी तरफ माँ के ठंडेपन से मुझमे ऊब पैदा होती थी.
(चुप्पी)
 जब मुझे उस दूसरी औरत के बारे में पता चला तो सबसे पहले जो ख़याल आया वो ये था की वो देखने में कैसी होगी और सच कंहू तो वो इतनी भी खूबसूरत नहीं थी की मुझे आपसे जलन होती. हाँ ये सच है की तब आपसे कुछ शिकायतें थीं...
बाप- और अब??
बेटा- अब??
बाप- हाँ, इतने सालों बाद अब तुम क्या सोचते हो, अब तो तुम्हारी माँ भी नहीं जो मासूमियत से ये कहे की टीवी पर चलते न्यूज़ रील ने तुम्हे परेशान कर रखा है.
बेटा- आपको याद है आप अक्सर कहते थे की गोली मारने से पहले शिकार की आँखों में देखना होता है इससे उसकी तकलीफ कम हो जाती है और अपने जीने के लिए उम्मीद बंधता है.
बाप- वो मेरे मिलिट्री के अनुभव थे.
बेटा- हाँ पर इस बात को मैंने बहुत बाद में समझा. आपके मरने के बाद. हर बार ऐन वक्त पर मै अपनी आँखे फेर लेता था, अपनी उस आदिम भूख को झुठलाते हुए जिसमे कुछ भी गलत नहीं था...
बाप- कुछ भी गलत नहीं था??
बेटा- मै अकेले रहता हूँ, शादी नहीं की अब तक. हिम्मत भी नहीं होती, आप अपनी नौकरी के लिए शहर बदलते थे मै अपनी सुविधा से या कह लें दुविधा में शहरें बदलता हूँ...
बाप- और औरतें भी.
(लंबी चुप्पी)
बेटा- अपने आखिरी दिनों में माँ सारा सारा दिन आपके स्टडी रूम में बैठी रहती थीं कई बार वंही सोफे पर सो जाती थीं. मुझे उन दिनो समझ में आया की प्यार जैसी कोई चीज़ नहीं होती आदतें होती हैं, ऊब होता है, आप खाते हैं पीते  हैं हगते हैं मुतते हैं काम पर जाते हैं घर आते हैं लोगों से मिलते हैं शहर बदलते हैं और इंतज़ार करते रहते हैं किसका ये बहुत ज्यादा मायने नहीं रखता क्यूंकि आखिर में तो मरना ही है और एक दिन माँ मर गई वंही स्टडी रूम में सोफे पर जंहा आप बैठते थे मुझे लगता है वो बहुत सुकून से मरीं.

  उसे सचमुच ऐसा ही लगता था की माँ बहुत सुकून से मरीं. उसने माँ के अकेलेपन के बारे में कभी नहीं सोचा. कुछ लोग अपने अकेलेपन में इतने पूरे होते हैं की आप उन्हें देखकर रो भी नहीं सकते.


बाप- एक बार हम एक रेस्त्राँ में बैठे थे मै और तुम्हारी माँ. ऐसा बहुत कम ही होता था की हम एक साथ कभी कंही बाहर जाएँ. मैंने उससे पूछा तुम क्या खाओगी आर्डर करो और उसने कहा जो भी आप कहो. मुझे गुस्सा आया और मै उसे वंही छोडकर बाहर चला आया, उसके बाद मै पछताता रहा फिर जब इस बात के लिए मैंने उससे माफ़ी मांगी तो जानते हो उसने क्या कहा..
बेटा- क्या?
बाप- यही की मुझे इस बात को भूल जाना चाहिए और वो मुझसे बिलकुल भी नाराज़ नहीं.
(चुप्पी)
बेटा- ठीक है मै आपको समझ रहा हूँ पर क्या उनके सच कहने से बात बदल जाती.
बाप- हाँ बदल जाती और तुम मुझसे इतनी नफ़रत नहीं करते.
(चुप्पी)
बेटा- मुझे नहीं मालूम था की आप माँ को इतना चाहते थे.
बाप- पर उसे मालूम था, शायद यही उसके नफ़रत की वजह थी.
बेटा- आप उनसे मिले थे ?
बाप- नहीं. पर तुम मिल सकते हो.
बेटा- वो कैसे?
बाप- जैसे मुझसे मिल रहे हो.
बेटा- हम्म
(चुप्पी)
बाप- अब मुझे जाना चाहिए.
बेटा- पर आप तो बहुत पहले ही जा चुके हैं अब जाने के लिए कौन सी जगह है.
बाप- इस कहानी और दोपहर के बाहर बहुत सी दूसरी जगहें हैं जंहा मै जा सकता हूँ.

  दूसरी जगहें हमेशा लौटने के लिए होती हैं इसीलिए आप बार बार लौटकर उस एक दोपहर में आतें हैं जंहा बहुत साल पहले आपने किसी को खो दिया था आप उनसे कहना चाहते थे की आपको भी फर्क पड़ता है. पर ऐसी दुनिया में जंहा किसी बात से कोई फर्क नहीं पड़ता था ऐसा सोचना भी कहानी लिखने जैसा हो जाता था. पर कहानी कभी पूरी नहीं होती थी इसीलिए दुपहरें फिर दुपहरों की तरह ही बार बार लौट आती थीं जिसमे कुत्ते ऊंघते थे और पेड़ बीच बीच में भौंककर फिर सो जाते थे.

मंगलवार, 21 फ़रवरी 2012

गांव, पहाड़ और गमला

              Artist- Robert Rauschenberg
                                                     




















मै पहाड़ पहाड़ चिल्लाते हुए
शहर के सबसे व्यस्त चौराहे पर खड़ा
खुले में मूत रहा हूँ

कभी कभी 
हरे रंग को चेहरे पर पोतकर
मै जंगल हो जाने का भ्रम पालता हूँ
और बालकनी से टेक लगाकर
धूप के बारे में इस तरह बतियाता हूँ
की गांव को गमले की शक्ल में
बदलते हुए पाता हूँ.

और कुछ नहीं, सिर्फ सितम्बर की धूप है

                                 Artist- Uday Singh
                                                                     



















             
            १.
कभी कभी मै तुम्हे इस तरह देखता हूँ
की जैसे पहली बार देख रहा हूँ
इस देखने में पहले जो देखा था
का भूलना भी शामिल होता है
और जब मैंने तुम्हे पहली बार देखा था
तो वो इस तरह का देखना था
की जैसे नहीं देखा हो.

              २.
कोई कोई दिन होता है
जब कोई नहीं होता
ये कोई कोई दिन
बहुत सारे दिनों के बीच का
कोई एक दिन होता है
इस कोई एक दिन में
बहुत सारे दिनों जैसा ही
सब कुछ होता है
हाँ बस मै नहीं होता
और तुम भी नहीं होती
इस कोई एक दिन में सिर्फ हम होते हैं
कुछ इस तरह
जैसे कोई नहीं है.

               ३.
फिर कभी कभी
मै तुम्हे इस तरह भी सोचता हूँ
की जैसे नहीं सोच रहा हूँ
अक्सर नहीं सोच रहा हूँ की सोच
मेरी शामें होती हैं
और जब मै तुम्हे सोच रहा होता हूँ
तो कुछ इस तरह
मानो नींद में हूँ
दरअसल
नींद में हूँ की सोच
सितम्बर की धूप है
जो आजकल बेशर्मों की तरह
दिन भर गुनगुनाती रहती है.  

धूप, ऊब और दिल्ली

                                                         Artist- Mario Sironi
                                                                             



















अब वो जानता  है की कविता
घेराव में
किसी बौखलाए हुए आदमी का
संक्षिप्त एकालाप है.
-          धूमिल

धूप, ऊब और दिल्ली
किसी काली बिल्ली की तरह घूरती हुई
मेरे भीतर छप्प से कूद जाती है
मै बिल्ली के चमड़े को खींचकर 
रात की तरह
तानता हूँ
जानता हूँ
की सहने को हमेशा बहुत होता है
और कहने को बहुत कम

फिर भी
कभी कभी मै कविता को
किसी रंडी की तरह इस्तेमाल करते हुए
खुद से छुपकर उसके पास जाता हूँ
और झड़ने के बाद
वापस लौट आता हूँ
शब्द किसी दलाल की तरह मुझ पर अकड़ते हैं
और मेरी बेशर्मी पर झगड़ते हैं

मुझे राम और बाबर की औलादों से ईर्ष्या है
कहते हुए 
मै अपना सर किसी शुतुरमुर्ग की तरह
ज़मीन में धंसा देता हूँ
इसे एक चालाक आदमी के शर्म की तरह आंको
जो समय को च्विंगम की तरह चभ्लाता है
और बिस्तर पर सारा दिन
किसी सूअर की तरह लोटते हुए इतराता है

बावजूद इसके
मै अभी भी कह सकता हूँ
की कविता मेरा शोकगीत नहीं
बल्कि दुनिया को शब्दों में
भरपूर जी लेने की कोशिश है.

देखो मै हूँ


क्या दुनिया तुम्हारे पास आकर कहती है , देखो मै हूँ.
-          रमण महर्षि

                    Artist- Katsushika Hokusai
                               









                                                                                                                            




                 




           १.

रात में नींद नहीं आती
और मै पहाड़ों को याद भी नहीं कर रहा होता
फिर लिखते हुए अचानक
शब्दों के बीच कंही पहाड़ चमक जाता है
और तब सचमुच
मै पहाड़ों को याद नहीं कर रहा होता.
     
           २.

कभी कभी मन करता है
किसी बहुत ऊंचे पहाड़ पर चढ़ जाऊं
चीखूँ चिल्लाऊं
वरना तो यंहां सभी गूंगे और बहरे हैं
या मेरी तरह नपुंसक
जो किसी पहाड़ पर चढ़कर चीखना चाहते हैं.

           ३.

मैंने लिखने के लिए तो लिख दिया पहाड़
पर जब मुह खोला कहने के लिए पहाड़
तो लगा नहीं की कह रहा हूँ पहाड़
जबकि कंहूँ पहाड़
तो उसका मतलब सिर्फ पहाड़ होना चाहिए.