मंगलवार, 21 फ़रवरी 2012

धूप, ऊब और दिल्ली

                                                         Artist- Mario Sironi
                                                                             



















अब वो जानता  है की कविता
घेराव में
किसी बौखलाए हुए आदमी का
संक्षिप्त एकालाप है.
-          धूमिल

धूप, ऊब और दिल्ली
किसी काली बिल्ली की तरह घूरती हुई
मेरे भीतर छप्प से कूद जाती है
मै बिल्ली के चमड़े को खींचकर 
रात की तरह
तानता हूँ
जानता हूँ
की सहने को हमेशा बहुत होता है
और कहने को बहुत कम

फिर भी
कभी कभी मै कविता को
किसी रंडी की तरह इस्तेमाल करते हुए
खुद से छुपकर उसके पास जाता हूँ
और झड़ने के बाद
वापस लौट आता हूँ
शब्द किसी दलाल की तरह मुझ पर अकड़ते हैं
और मेरी बेशर्मी पर झगड़ते हैं

मुझे राम और बाबर की औलादों से ईर्ष्या है
कहते हुए 
मै अपना सर किसी शुतुरमुर्ग की तरह
ज़मीन में धंसा देता हूँ
इसे एक चालाक आदमी के शर्म की तरह आंको
जो समय को च्विंगम की तरह चभ्लाता है
और बिस्तर पर सारा दिन
किसी सूअर की तरह लोटते हुए इतराता है

बावजूद इसके
मै अभी भी कह सकता हूँ
की कविता मेरा शोकगीत नहीं
बल्कि दुनिया को शब्दों में
भरपूर जी लेने की कोशिश है.

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें