माँ
मै तो अपने बहुत मामूली दुखों से ही
घबरा गया हूँ
तुमने कैसे सहा
ये पहाड़ जैसा दुःख
जो हमेशा तुम्हे मिला
और फिर भी हो तुम आशावान.
तुम्हारी आवाज़ मुझे बारिश की याद दिलाती है
जिसे सुनकर मै खुद को
धान के हरहराते खेतों के बीच पाता हूँ
आखिर तुम्हारे भीतर
इतना हरापन कहाँ से आया?
हर बार तुम्हारे शब्दों के अनगढ़पने से ही
मैंने अपने लिए नई भाषा पाई है
शब्दों से परे
जिसमे चूल्हे से उठती धुंए की गंध होती है
और छत पर सूखते गेंहू की चमक.
जानती हो माँ
ये शहर बड़ा अजीब है
जहाँ मै रहता हूँ
न मै इसकी भाषा समझता हूँ और न चलन
तुम्ही देखना
कैसे मै दिन ब दिन घुन्ना होता जा रहा हूँ
हर बार जब चेहरे पर हाथ फेरता हूँ
तो कुछ नया सा लगता है.
माँ
तुम कभी मत आना इस शहर
मै ही लौटूंगा हर बार
जानता हूँ
तुम्हारी नींद बहुत कच्ची है
हल्का सा खटका
और तुम जाग पड़ती हो
जबकि ये शहर हमेशा सपनों में होता है.
सुखद.....
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