“कुछ मीठा क्यूँ नहीं लिखते”
कहकर वो आदमी उबासियाँ लेने लगा
मुझे गुस्सा आया और मैंने झपटकर
उसके चेहरे से
पिछली रात का जागना नोच लिया
उसकी नंगी आँखों में अंतहीन सूनापन था
और उसके होंठ
हमेशा झूठ मूठ का मुस्कुराते रहने से
थोड़े विकृत हो गए थे
उसने फिर कुछ कहने की कोशिश की
और उसके मुह से
ऊब और अकेलेपन का
मिलाजुला भभका बाहर आया
मैंने घबराहट में लगभग चीखते हुए कहा-
“मै तो हमेशा ही मीठा लिखना चाहता हूँ”
पर उसने सुना नहीं
उसके कानों पर
हजारों काली रातों जैसे
चींटियाँ चिपकी हुई थीं
जो धीरे धीरे उसके कानों को कुतर रही थीं
मैंने हडबडाहट में गलती से
(या शायद जानबूझकर)
उसके चेहरे पर लाल रंग पोत दिया
इस अचानक से हमले ने उसे स्तब्ध कर दिया
(पर मै सिर्फ मदद करना चाहता था,उसकी या अपनी पता नहीं)
उसने थोडा ठहरकर जीभ बाहर निकाली
और अपने चेहरे पर फिराया
फिर मुझसे मुस्कुराते हुए पूछा
“ये कौन सा रंग है जो इतना मीठा है”
अब स्तब्ध रह जाने की बारी मेरी थी.
अच्छी रचना.....
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