शुक्रवार, 30 सितंबर 2011

शेर ,शिकारी और बकरी वाले कहानी में रात के साथ सम्भोग


                                                                                                       Artist- Jean-Michel Basquiat


  मौसम ही कुछ ऐसा था की धूप भीतर की झाडियों में उलझ जाता था और अपने ही चेहरे से पसीने की तरह कई और चेहरे टपकते रहते थे, फिर भी जब - जब कोई नई कहानी कहना होता, तो हम बार-बार लौटकर वंही जाते थे जंहा एक शेर था. एक बकरी थी, और एक घास का गट्ठर पिंजरे की तरह खुला हुआ और एक शिकारी पेड़ के ऊपर पत्तों की ओट में छिपा हुआ.

-          फिर?
-          फिर? हाँ ..फिर उस लड़की ने पिछली बार की तरह ही फिर आखिरी बार एक कसम खाई और उस कसम का मतलब कुछ ये निकलता था की...की ..
-          मुझे मतलब नहीं जानना , सिर्फ कहानी का अंत जानना है.
-          अबे कहानी क्या कोई कुतिया है की उसके पैदा होने और मरने का तुझे हिसाब दूँ, अच्छा ये बता रात के साथ कौन सम्भोग करता है ? सूरज की चाँद?
-          तुम शुरू से जानते थे की कहानी में वो लड़का उसके साथ धोखा करेगा ..
-          मैंने धोखा नहीं कहा.
-          हा हा हा .... वैसे चाँद के जेंडर पर बहस हो सकती है.
-          तू बेवजह मुझ पर शक कर रहा है , कहानी में मुझे उस लड़के से कोई हमदर्दी नहीं और कहानी के बाहर चारों तरफ वैसे ही लड़के हैं. जो एक दिन लड़की को छोडकर चले जाते हैं.
-          और तू चाहता है की वो लड़की हमेशा कहानी के भीतर ही रहे ..
-          मतलब ?
-          तुझे याद है उस दिन बाहर बारिश हो रही थी और तू बाथरूम से होकर आया था ,तुने अचानक ही गुस्से में टी.वी. बंद किया था और फिर हमने ला स्त्रादा देखी  थी .
-          मुझे याद नहीं
-          तुझे ला स्त्रादा याद नहीं?
-          मुझे वो दिन याद नहीं. और मै हर दुसरे तीसरे दिन में बाथरूम जाता हूँ मुट्ठ मारने  तो आखिर इससे क्या साबित होता है??
-          तुझे वो धुन याद है, वो गीत , वो पागल सी लगती औरत..जो हमेशा के लिए उस  कहानी के भीतर ही रह गई .
-          देख बे ,तुझे गुड़ की तरह बोलने की ज़रूरत नहीं अगर बात गू ही है तो हग दे ,मै भी सुनना चाहता हूँ.
-           तू रात की कल्पना एक औरत के रूप में करता है ?
-          मै रात को कुतिया भी लिख सकता हूँ.
-          और कुत्ता भी??
-          रात के गर्भ में...
-          बकवास , मै चाँद को मामा नहीं बुलाऊंगा...
-          हा हा .. घटिया आदमी..
-          तेरी कहानी के बाहर हर आदमी घटिया है हर आदमी वो लड़का है जो कभी भी उस लड़की को छोडकर जा सकता है,फिर तू कहानी में उसे एक बहादुर लड़की कि तरह लिखेगा कुछ इस तरह कि जैसे वो इन सब से उबर आएगी क्यूंकि उसे सहना आता है ... तू लिखेगा कि....
-          तू अपनी माँ चुदा...साले..
-          हा हा हा.... और तेरे झंडे के नीचे हर किसी को माफ़ी मिल सकती है ,क्यूंकि तेरा सारा अफ़सोस वो लड़की ढोती रहेगी और बाकि के वो सारे लोग भी जो कहानी के भीतर खुद अपना ही भूत बनकर घुमते रहते हैं , सारी जिंदगी ऐसे ही ....तेरे कहानियों के भीतर तेरी कविताओं में, तेरे लिजलिजे शब्दों को ओढ़े हुए और कृतार्थ होते हुए, सचमुच कमाल की कहानियां लिखता है मेरे शेर ...
-          मेरा अफ़सोस??
-          और तेरा बदला भी, की हर कहानी में असली मुजरिम हमेशा फरार रहेगा ,उसकी भूमिका असंदिग्ध और संक्षिप्त है. और नायक अदृश्य ,क्यूंकि वही तो कहानीकार है...
-          अबे चूतिये ,तुझे क्या लगता है की तू अलग है..... नहीं. तू सिर्फ मेरे शब्दों के बीच पड़ा हुआ एक गाँठ है , सुखी हुई स्याही का एक धब्बा ,मैदान की धूप में सूखता हुआ टट्टी जिसे मैदान की मिटटी में मिल जाना है बाद में किसी को पता भी नहीं चलेगा की कभी तू भी महका था और तेरे बगल से गुजरते  हुए कभी किसी ने अपनी नाक बंद की थी , हा हा .. कभी किसी को नहीं....पता चलेगा ,क्यूंकि सब ढोंग करते हैं ,सुना तुने सब तेरी मेरी तरह ढोंग करते हैं.

           कंही कोई ढोंग नहीं था सिर्फ कहानियां थीं जिसमे एक शेर बकरी का बलात्कार करता है ,बकरी घास का पूरा गट्ठर भकोसते हुए मिमियाती है और शिकारी अपने हस्तमैथुन की इस पूरी क्रिया को गांव में रस ले लेकर सुनाता हुआ गीत गाता है. और इसे किसी तीसरे ढंग में कहने के लिए मुझे अपनी जुबान कटवानी होगी.

शुक्रवार, 26 अगस्त 2011

बैल

                                   Artist - Myself













उस अदबी आदमी ने 
बैल न बनने की एवज में 
छोड़ा घर/पत्नी/बच्चे 
और उस छोटे से शहर को भी 
तब वो बुद्ध था,
उस आदमी ने 
जीवन की छोटी-छोटी आवश्यकताओं को दी
 तिलांजलि 
चला आया शहर 
और तब वो गाँधी था ,
उसने खूब लिखा दलितों पर 
नारे लगाए सेक्युलरिजम के 
अपनी पत्रकारिता के बल पर 
उघाड़े टूटपूंजिये  नेताओं के चेहरे 
लिखी कहानियां/कविताएँ/लेख
तब वह पाश था ,
इसी तरह वो बनता रहा बहुत कुछ 
उसने चुना अपने लिए एक स्वर- विरोध का
चुनी भाषा - विरोध की 
उसके पास थे बिलकुल नए और चुनिन्दा तेवर - विरोध के 
जिसका अभी बाज़ारीकरण नहीं  हुआ था 
और जो सिर्फ उसी के पास  थी 
फिर हुआ यूँ 
की वह दिखने लगा टी.वी./पत्रिकाओं/अख़बारों में 
हर ओर चर्चा थी उसकी और
उसके इस नए तेवर की 
फिर एक दिन वो ले आया शहर 
अपनी पत्नी/बच्चे/परिवार को
और अब
 वह पति/पिता और बैल था.

शुक्रवार, 12 अगस्त 2011


      
     रामकुमार - उदासी , पेड़ , पहाड़ और गंगा 


"जो भी प्रकृति से प्यार करता है ,उसे प्रकृति कभी निराश नहीं करती."
                                                                                    - वर्ड्सवर्थ


          देखो ,सोचो मत,कुछ भी मत सोचो,सिर्फ देखो,इसके गवाह बनो. एक मूक तटस्थ दर्शक और इस तरह हम सचमुच ही रामकुमार के चित्रों का इशारा समझने लगते हैं,उसमे खो जाते हैं. रामकुमार मेरे पसंदीदा चित्रकारों में से हैं तो इसका सीधा सम्बन्ध शायद मेरा अपना परिवेश भी है जंहा मेरा बचपन बीता. चारों ओर पहाड़ों से घिरा गाँव ,दूर-दूर तक फैली धान की हरी फसलें ,नदी,जंगल,धूसर मिट्टी और सर के ऊपर फैला अनंत नीला आकाश और यही सब मै रामकुमार के चित्रों में भी देखता हूँ,संयोग से उनका बचपन भी पहाड़ों पर ही बीता ,शिमला में. ये वही छवियाँ हैं जो उनके भीतर थीं और जिन्हें कैनवास तक पंहुचने में एक लम्बा सफ़र तय करना पड़ा . उन्होंने अपने कैरियर की शुरुआत एक लेखक के रूप में की और रंगों की दुनिया में शामिल हो गए . एक तरफ वो चित्र बनाते रहे तो दूसरी तरफ अपनी कहानियों में भी जीवन की त्रासदियों से उनकी  मुठभेड़ें होती रहीं . 


         प्रकृति में हर रंग मौजूद है ,रामकुमार के यंहा भी रंगों की अपनी ही एक दुनिया है ,उनके चित्रों में जैसे प्रकृति स्वंय ही प्रविष्ठ होती है ,इसके लिए उन्हें किसी तरह की कोई कोशिश नहीं करनी होती. रंगों की उनकी अपनी ही एक भाषा है ,जो सिर्फ उनकी अपनी है . एक जगह अपने साक्षात्कार में वो कहते हैं - " लाल रंग भी उदास हो सकता है ." और इस तरह रामकुमार अपने कैनवास में रंगों को अपनी ही एक अलग भाषा में अनूदित करने लगते हैं,जो न केवल दर्शकों को प्रभावित करता है बल्कि दर्शक इन चित्रों में अपने गाँव ,घर,नदी,पहाड़,जंगल सब पहचान सकता है. अपने चित्रों में वे कभी उदास नज़र आते हैं तो कभी प्रकृति की फड़फड़aहट को उसकी पूरी जीवन्तता और  मांसलता के साथ पकड़ते हैं और कभी तो वो हमें सिर्फ तटस्थ से दिखाई पड़ते हैं किसी ध्यानमग्न योगी की तरह . उनके चित्र हमें चमत्कृत नहीं करते  न ही हमें कुछ ढूँढने या जानने के लिए बाध्य करती  हैं बल्कि वो हमें अपने में ही शामिल कर लेती हैं और हमारी ऊंगली थामकर उन छूपे हुए कोनों तक लेकर जाती हैं जंहा कोहरे से ढंके पहाड़ हैं या जंगलों के बीच से गुज़रती पतली पगडंडियाँ  या पहाड़ी झरने का चुपचाप सा बहना . इन चित्रों को देखते हुए लगता है मानो हम समय और आकारों से परे किसी और ही दुनिया में हैं जिसकी प्रमाणिकता और ईमानदारी असंदिग्ध और अक्षुण है . 


            आज़ादी से पैदा हुए मोहभंग ने लगभग सभी कलाकारों ,लेखकों और बुद्दिजीवियों को प्रभावित किया था जिससे रामकुमार भी अछूते नहीं रहे थे शायद यही कारण है कि उनके शुरू के चित्रों में हमें उजाड़ ,उदास औए ऊबे ,तपे हुए असहाय चेहरे दिखाई देते हैं ,इन चित्रों में वो टूटा हुआ सपना था ,जो हज़ारों युवाओं ने आज़ादी को लेकर बुना था और ये चेहरे इन टूटे हुए सपनों कि बानगी ही था .उनके आरंभिक चित्रों में भारतीय माध्यम वर्ग , विचलित संत्रस्त  बेरोजगार युवा पीढ़ी ,शोषित शापित मज़दूर, उजाड़ मकानों के सामने खड़े बेघर लोग, नाउम्मीदी से भरी खिड़कियाँ, जीर्ण शीर्ण दरवाज़े और बेहद उदास शहर नज़र आता है और इन चित्रों के आगे खड़े हम भी उतने ही असहाय हो जाते हैं जितने इन चित्रों में उभरते चेहरे ,पर रामकुमार कभी भी दर्शकों से इन असहाय चेहरों के लिए कुछ मांगते नहीं सिर्फ इस अंधेपन के खिलाफ कैनवास पर उन्हें चित्रित करते हैं आखिर ये उनके स्वंय का भोगा हुआ यथार्थ भी था. इस दौर कि रचनाओं में दया और करुणा का भाव कभी भी बीमार किस्म कि चिपचिपी भावुकता से ग्रस्त नहीं हुआ बल्कि उनमे एक ख़ास किस्म का तीखापन है जो दर्शकों के भीतर दुःख,अपराधबोध और गुस्से का मिलाजुला भाव पैदा करते हैं. 



             " यह काफी नहीं कि तुम इस दुनिया को एक माया कि तरह अनुभव कर सको , तुम्हे माया के यथार्थ को भी जानना होगा. वास्तव में इन दोनों सत्यों को - यथार्थ कि माया और माया के यथार्थ को एक साथ और एक समय में पकड़ने कि कोशिश करनी चाहिए . तभी यह संभव हो सकेगा कि हम दुनिया के साथ पूरी तरह जुड़कर भी पूरी तरह निस्संग रह सकें ."
 रामकुमार के भाई और प्रख्यात कथाकार निर्मल वर्मा कि डायरी के ये अंश मुझे रामकुमार के चित्रों के सन्दर्भ में बेहद सटीक जान पड़ता है.जंहा एक ओर वे अपने शुरुआती चित्रों में " यथार्थ कि माया " को पकड़ते हैं तो वंही दूसरी ओर १९६० में बनारस कि यात्रा ने जैसे " माया के यथार्थ " से उनकी मुलाक़ात करा दी .


       १९६० में जब रामकुमार बनारस जाते हैं तो अचानक ही उन्हें अपने चित्रों के लिए एक नई उर्वर  ज़मीन देखने को मिलती है . गायों कि धूल उड़ाती झुण्ड, मंदिर कि घंटियाँ,घाट पर अधनंगे नहाते साधू-सन्यासी,सामान्यजन और उनकी तर्कातीत श्रद्धा,और पाप और पुण्य का लेखा-जोखा,पुराने मकान और गलियां,विधवाएं और मणिकर्णिका के घाट , जलते हुए शवों पर विलाप करते हुए परिजन और पार्श्व में चुपचाप बहती गंगा. ये जैसे उनके लिए जीवन और मृत्यु की सीमा रेखा थी . एक अनूठा मायालोक जंहा गंगा और उसके घाट और शहर और उसमे बसते लोगों की दिनचर्या सब आपस में ऐसे घुली मिली थीं की उन्हें एक दुसरे से अलग करके देखना असंभव था ,जंहा हर दृश्य अपने में एक कम्पोजिसन ,रंगों और रेखाओं का अनूठा रचना संसार था  . यंहा रामकुमार अपने अनुभवों की गहराई में जाकर देखने की एक नई ही भाषा ईजाद करते हैं ,जिस तरह राजस्थान ने हुसैन के रंगों में प्राण फूंके कुछ इसी तरह बनारस के अनुभव ने रामकुमार को एक नई उर्जा दी.
वे स्वंय एक जगह लिखते हैं - "मैंने सपने में भी नहीं सोचा था कि यह मेरे लिए इतना महत्वपूर्ण होगा ,सिर्फ एक कलाकार के रूप में ही नहीं बल्कि एक मनुष्य होने के नाते भी. इसकी छाया एक लम्बे अरसे तक मेरे मन पर बनी रही ." उन्होंने १९६०-64 के बीच बहुत से बनारस के सिटीस्केप्स बनाए और थोड़े थोड़े अंतरालों में अक्सर वो बनारस भी जाते रहे ,हम अब तक उनके लैंडस्केप्स में बनारस कि छवियों को ढूंढ सकते हैं . बनारस पर वो निरंतर काम करते रहे जाने के बाद भी बार -बार लौटकर बनारस आते रहे , शायद यही " माया का यथार्थ " है .


           रामकुमार का व्यक्तित्व दुसरे कलाकारों कि भांति कभी विवादस्पद नहीं रहा ,वे बहुत ही संकोची स्वभाव के हैं और अपने बारे में या अपनी रचना के बारे में ज्यादा नहीं कहना चाहते .  अपने चित्रों के सन्दर्भ में रामकुमार कहते हैं - "  जब कभी उनके(चित्रों) विषय में कुछ प्रश्न पूछे जाते हैं ,तो ईमानदारी के साथ कुछ भी कहना मुझे लगभग असम्भव सा जान पड़ता है. जब मै स्वंय ही इनके बारे में कुछ नहीं जानता तो दूसरों को क्या बतला सकता हूँ ,सिवाय इसके कि इसकी  रचनाप्रक्रिया क्या थी ? "
निर्मल वर्मा के शब्दों में - 

 " प्रकृति का कोई अर्थ नहीं है वह या उसका अर्थ उसकी अनिवार्यता में निहित है ,जो है वही उसका अर्थ है . जब कोई कलाकृति इस अनिवार्यता को उपलब्ध कर लेती है तो वह इतने सम्पूर्ण रूप से अर्थवान हो जाती है कि उसे अर्थहीन भी कहा जा सकता है ."
 रामकुमार कि कला  प्रकृति कि तरह ही अपनी अनिवार्यता को  उपलब्ध कर पाने में सक्षम रही है. निसंदेह वे एक महान कलाकार हैं तथा आज भी कलाकार के रूप में सक्रिय हैं , हमारी पीढ़ी के लिए वो एक दिशानिर्देशक कि तरह  हैं . उनका स्वास्थ्य हमेशा इसी तरह अच्छा बने रहे इसके लिए हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं. 








बुधवार, 10 अगस्त 2011

हरियाली का गीत

                                                           Artist - Raj Kumar Sahni

एक दिन के लिए ही सही 
मनुष्य ने अपनी सारी कमज़ोरियों को
धूप में सूखने के लिए डाल दिया 
और मछलियों ने इस पूरे किस्से को 
किसी लोकगीत की तरह गुनगुनाया .

जबकि उम्मीद शब्द एक झुनझुना है 
और हरियाली के गीत 
हमेशा ही किन्ही उदास कवियों ने लिखा है 

अगर इसे दूसरी तरह से कहूँ 
तो मै ये देखता हूँ
की कहीं किसी सुदूर रेगिस्तान में 
एक आदमकद आइना है रखा हुआ 
जिस पर प्रतिबिंबित होती छवि 
समूची कायनात है 
और यकीन मानिए
मैंने उस पर कभी धूल की एक परत तक नहीं देखी

एक दिन के लिए ही सही
ऐसी ख़ुशफ़हमी भी क्या बुरा। 

मंगलवार, 9 अगस्त 2011

तीन, नौ और तेरह


                                                                                                                     Artist- Lucian Frued

दिन कांच के थे और आवाजें झिलमिलाहट की तरह सुनाई पड़ती थीं . खेल में कोई नियम नहीं था ,कहानी कंही से शुरू होकर कंही भी ख़त्म हो सकती थीं और मुहावरे में पांव उखड जाने का मतलब सिर्फ हारना भर नहीं था .


लड़का - तुने 'हम दिल दे चुके सनम ' देखी है ? 
लड़की - तेरह बार 
लड़का - हा हा हा..... वो इतनी सही फिल्म भी नहीं की तेरह बार झेली जाए 
लड़की - जानती हूँ, पर मेरे साथ अक्सर ऐसा होता है , मतलब की किसी खास अंक पर जाकर मै अटक जाती हूँ और तब बहुत बेतुकी सी बात को भी उस खास अंक तक कई बार दुहरा सकती हूँ मतलब बस ऐंवे ही 
लड़का - जैसे की ? 
लड़की - तीन ,नौ और तेरह 
लड़का - हम्म.....(चुप्पी)  उस दिन मार्च की तेरह तारीख़ थी जब वो मरे और मेरी उम्र भी तेरह साल और उस दिन पता नहीं क्यूँ पर मै बहुत खुश था मतलब मुझे एकदम ठीक ठीक से याद नहीं पर अचानक ही मुझे लग रहा था जैसे मै आज़ाद हो गया हूँ...हो सकता है ये बात न रही हो फिर भी .....
                 लोग आते और हमदर्दी से मेरे सर पर हाथ फेरते ,माँ रोती रही थी और मै किसी बहादुर बच्चे की तरह मुस्कुराता रहा था ,पर मै खुश था इसलिए वो सचमुच का मुस्कुराना था जैसे बाप का मर जाना कोई बड़ी या खास बात न हो .
                                            (चुप्पी) 
लड़की - जानते हो ऐसे ही एक दिन मेरी दीदी भी मर गई थीं मतलब की मरी नहीं थीं, दरअसल उन दिनों उन्हें हर वक्त छत पर जाने का                 कोई बहाना चाहिए होता था ,कभी कपडा सुखाने तो कभी अचार या पापड़ों को धुप दिखाने और छत पर जाकर वो अटक जातीं. 
            उन दिनों उनकी उदासी देखकर लगता मानो वो कभी भी छत से कूद सकती हैं ,और एक दिन वो पंखे से लटकते हुए मिलीं ,उस लड़के के बारे में मुझे कुछ नहीं पता और मम्मी  पापा अलग अलग कमरों में सोने लगे और मै अकेले और उदास रहने लगी मेरे को लगता था की जैसे मै औरों से कुछ अलग हूँ और इस ऐसा सोचने में ही एक मज़ेदार टाइप का  सुख था पर मुझे जल्दी ही समझ आ गया की मेरे आस पास के सब लोगों के पास ऐसे ही कुछ प्राइवेट किस्म के कोई न कोई सुख थे और फिर... 
लड़का - और फिर?
लड़की - और फिर क्या? मै दुबारा से खुश रहने लगी.
                    (लम्बी चुप्पी)
लड़की - तुमने देखा ?
लड़का - नहीं,क्या था?
लड़की - एक लड़का... अरे वो जो जा रहा है , उसने मुझे बहुत छुपे ढंग से आँख के कोनो से देखा (चुप्पी) कभी कभी अचानक से ऐसे लड़के मिल जाते हैं जो बातें करते हुए झेंप से जाते हैं ,अचानक ही बेवजह मुस्कुराने लगते हैं ,आँख मिल जाए तो शरमाकर कंही और देखने लगते हैं, हा हा हा...तब मन करता है उसी वक्त उन्हें चूम लूं 
लड़का - चूमती नहीं ?
लड़की - क्यूंकि जानती हूँ की मेरे चूमते ही वो शेर हो जाएँगे 
                         (चुप्पी)
लड़की - तुने पहली बार किसी लड़की को कब चूमा था?
लड़का - जब मै नौ साल का था .
लड़की - फिर?
लड़का - फिर उसके कुछ ही दिन बाद मै मर गया ,मुझे नहीं लगता की उन्हें मेरे मरने पर बहुत ज्यादा दुःख हुआ होगा बल्कि उस दिन उन्होंने दो पैग ज्यादा ही पी थी दरअसल वो बुधवार का दिन था और हमारे शहर में उस दिन साप्ताहिक बाज़ार होता था और पिताजी के ऑफिस की आधी छुट्टी भी,हफ्ते में इस दिन पीना उनके बरसों का रूटीन था और बाद के दिनों में जब कोई उनसे मेरा ज़िक्र भी करता तो दो चार बार आँखे झपकाकर वो कंही आस पास हवा में खाली सा कुछ ताकने लगते या फिर मुस्कुराकर किसी किताब का ज़िक्र छेड़ देते और कुछ नहीं सूझने पर जेब में हाथ डालकर सर हिलाते हुए मन ही मन कुछ बुदबुदा देते .
                 ये उनका अपना खास स्टाइल था ,लोग अक्सर उनके इस अंदाज़ से इम्प्रेस होकर नकली गंभीरता से उन्हें देखने और सुनने लगते .मतलब इस तरह से उन्होंने मेरे मरने का भी एक उपयोगी इस्तेमाल ढूंढ लिया था.
                                        (चुप्पी)
लड़का - अब चलें , बारिश हो सकती है.
लड़की - नहीं, थोडा रुको.......अच्छा तुम्हे याद है तुमने कल फ़ोन किया था...
 मै उसके साथ थी ,हम अँधेरा होते तक उसकी बालकनी में बैठे रहे फिर हवा चलने लगी और फिर बारिश , मै चाहती थी वो वंही बालकनी में मुझसे प्यार करे हालाँकि मैंने उससे कहा नहीं फिर हम कमरे के भीतर आ गए उसके बिस्तर पर ..... 
           मै बहुत खुश थी और जब तुम्हारा फ़ोन आया तब मै चाहती थी की तुम्हे सब कुछ बताऊँ बिलकुल शुरू से आखिर तक की किस तरह उसने मुझे ....पर तुम्हारा फ़ोन उठाते ही मै उदास हो गई ..
लड़का - हा हा हा......
लड़की - कमीने , अच्छा ठीक है अब चलते हैं 
लड़का - कितनी इन्सेक्योर्ड होती हो तुम अपनी कहानियों में 
लड़की - तुम्हारी तरह हर कहानी में शहीद हो जाने का ढोंग नहीं करती मै, ब्लडी हिप्पोक्रेट .
लड़का - तुम्हारी हर कहानी में तुम्हारे नए झूठ  होते  हैं 
लड़की - और तुम्हारी हर कहानी में तुम्हारे नए सच और झूठमूठ के गिल्ट 
लड़का - अबे एक ही बात है 
लड़की - ओह ..हाँ एक ही बात है .


       दोनों के पास अपने अपने पुराने दिन और दुःख थे ,हर दिन में ऐसा कुछ नहीं घटता था जो उन्हें एक दुसरे से कहना ज़रूरी लगे ,ऐसे में वो झूठी कहानियों के पुल बनाते खुद को निर्दोष बताते हुए सबसे आसान शिकार चुनते जो उनकी कहानियों में बिना किसी विरोध के शामिल हो जाएँ जैसे माँ बाप ,पुराने दोस्त ,प्रेमी प्रेमिकाएँ ,भाई या बहन या सड़क पर चलते हुए अजनबी .उन बेचारों को पता भी नहीं होता था और वे इन कहानियों में शामिल कर लिए जाते और चूँकि दिन कांच के थे, हर आवाज़ अपनी ही आवाज़ की तरह गूंजती थी और हार जाने का मतलब उनके लिए किसी भी मुहावरे से बाहर था.  

और वो हँसते हँसते मर गया.......


                                                                                                      Artist- Joseph Beuys

वो हँसते हँसते मर जाने कि कल्पना करता था ,बाकि बच्चों कि तरह वो भी रोते हुए ही पैदा हुआ था हँसना तो उसने बाद में सीखा ,फिर भी लोगों के लिए ये यकीन करने में मुश्किल होता था कि वो एक सुखी और संतुष्ट आदमी है . वो हर वक्त मुस्कुराता हुआ या फिर हँसते हुए ही नज़र आता था,सिर्फ बातें करते हुए उसे बहुत कम ही देखा गया था मतलब कि बात करते हुए भी वो लगातार हँसता या मुस्कुराता रहता था .

             उसके सारे रिश्तेदार बहुत पहले ही मर चुके थे और वो एक बड़े से अजनबी शहर में अकेले ही हँसते हुए दिन फांकता था .वैसे तो वो एक चित्रकार था ,छोटी मोटी,नई खुली आर्ट गैलरियों या फिर कुछ इने गिने पर्सनल बायरों को अपनी पेंटिंग्स बेचकर उसके रहने ,पीने ,फूंकने और खाने का जुगाड़ हो जाया करता था और उससे अधिक के लिए मेहनत करूँ ये सोचकर ही उसके भीतर थकान पसर जाती थी.तो कुलमिलाकर वो एक अजनबी   अकेला और हँसता हुआ चित्रकार था जो अपने मिलने वालों में ऊब और उत्तेजना दोनों भाव एक साथ एक ही समय में पैदा करता था .

                   उसकी माँ के बारे में कहा जाता है कि वो शादी से पहले तक पागल थीं और शादी के बाद लगभग लगभग ठीक हो गई थीं पर मरने से पहले उन्होंने अपना पागलपन उसके पिता को दे  दिया था,माँ के मरते ही पिताजी को कुछ हो गया था मतलब वो हर वक्त कुछ न कुछ बोलते बडबडाते रहने लगे थे और फिर एक दिन बोलते बडबडाते हुए ही मर गए उसी दिन शायद उसने हँसते हँसते  मर जाने कि कल्पना कि होगी,दरअसल रोते रोते मर जाने कि कल्पना  को उसने बहुत बार सिनेमा ,साहित्य और सस्तेपन में देख रखा था शायद इसीलिए उसने हँसते हँसते मर जाने कि कल्पना को चुना होगा .

                     पहली बार उसका हँसना सार्वजानिक तौर पर उसके टीचर ने नोटिस में लिया था जब वो १२ वी पास करने ही वाला था .
टीचर - सुनो,तुम मुझे हर क्लास में हँसते हुए ही क्यूँ दिखाई देते हो ?
चित्रकार -  सर, मुझे चुप रहना पसंद नहीं 
टीचर - ओह....., हाँ तो ठीक है अपने डेस्क के अगल बगल या आगे पीछे वालों से बात कर लिया करो , मै तुम्हे कुछ नहीं कहूँगा 
चित्रकार - सर, मुझे बातें करना भी अच्छा नहीं लगता 
टीचर - हम्म ... , अच्छा चलो ठीक है ,तुम हँसते रहा करो मुझे कोई परेशानी नहीं बस ये ध्यान रखना की धीरे हँसना मतलब की बाकि की क्लास को परेशानी न हो.

        तो इस तरह उसके दिन ,दुपहरें,परिवार,रिश्तेदार धीरे धीरे सब बीत गए और अब वो जिस उम्र में था वंहा से बीता हुआ बेवकूफी भरा लगता था और आने वाले दिनों के बारे में सोचना बेकार और बेमतलब.

                    औरतों के मामले में वो थोडा खुशनसीब था ,उनके जांघो के बीच सर देकर भी वो हँसता रह सकता था और ये बात औरतों को पसंद आती थी दरअसल उस शहर की ज़्यादातर औरतों के भीतर एक अजीब सी asurachha की भावना  थी इसीलिए वो शरीर पर झिलमिलाहट पोतकर ही सड़कों पर निकलती थीं ऐसे में उसकी हंसी उन्हें थोडा आश्वस्ति देता था की उनके आस पास सब कुछ इतना भी बुरा या भयानक नहीं . 
           खैर ..., वो जिस दिन मरा (हँसते - हँसते ), उस दिन भी वो किसी औरत के साथ ही था जिसे अपनी(सिर्फ) नंगी छातियों का चित्र बनवाना था .चित्र पूरा करते ही वो मर गया था और उससे पहले उन्होंने देर तक आपस में कुछ बातें भी की थी 

औरत - तुम हर वक्त ऐसे हँसते हुए कैसे रह लेते हो ?
चित्रकार - क्यूँ, क्या तुम्हे बहुत दुःख है ?
औरत - नहीं ,दुःख तो नहीं है पर चश्मा उतारते ही मै उदास हो जाती हूँ .
चित्रकार - तुम्हारे पास क्या बहुत सारे  चश्मे हैं ?
औरत - हाँ, अलग अलग शेड्स ,और डिजाइनों में.
चित्रकार - और क्या तुम्हारे घर में शीशा है ?
औरत - मेरा घर ही पूरा शीशों का है .
चित्रकार - हम्म ...मेरे कमरे में एक ही शीशा है वो भी टूटा  हुआ उसमे  मेरी  पूरी हंसी भी कटे  फिटे ढंग से दिखती है ,नया शीशा खरीदने का मन नहीं होता जब लगता है की ये हंसी या मुस्कराहट पुरानी पड़ गई तो किसी बच्चे की आँख में झांक लेता हूँ और नहीं , तो किसी झील पर झुक जाता हूँ . मेरी गली से बाहर निकलकर जो चौराहा पड़ता है वंहा एक बूढा मोची बैठता है वो जूतों को ऐसे चमकाता है की उन पर अपना असली चेहरा देख लो आज वाली हंसी मैंने कल ही उसके पोलिश किए हुए जूतों से उठाई है .  
  औरत - मै हर रोज़ अपना चश्मा बदलकर पहनती हूँ पर उदासी नहीं जाती 
चित्रकार - तो उन्हें उतारकर अलग रख दो .
औरत - मैंने कोशिश की थी की अपनी छातियों को उतारकर अलग रख दूँ ,पर नहीं हुआ.
                 (चुप्पी)
             ज़्यादातर आदमी जब मेरी छातियों की तरफ देखते हैं तो उनकी आँखों में रसगुल्ला, फद्फदाते  हुए कबूतर,तोतापरी आम और जाने ऐसी ही कितनी उपमाएं चली आती हैं जो मुझे बिलकुल भी अच्छा नहीं लगता , तुम्हारा मुस्कुराना मुझे अच्छा लगा अब मै यंहा अपने चेहरे से ये चश्मा उतार सकती हूँ .

       उस औरत के चश्मा उतारते ही पूरा कमरा अजीब सी खुशबू से  भर गया ,चित्रकार मुस्कुराते मुस्कुराते हंसने लगा और हँसते हँसते नाचने लगा सिर्फ उसका चेहरा भर ही नहीं बल्कि पूरी देह हंस रही थी. उसके हाथ ,हाथों पर की ऊँगलियाँ ,ऊंगलियों में फंसा ब्रश ,ब्रश पर चढ़ा रंग , रंग पर चमकती धूप, और हवा और हवा में मौजूद सारे कण ,सब के सब हँसते हुए पागल हो रहे थे परदे , खिड़कियाँ , रंग ,कैनवास , ऐश ट्रे,टेबल ,कुर्सी ,फैन, गमले सब कुछ और इस हंसी को मै किसी भी उपमा ,अलंकार में नहीं बाँध सकता और इसी हंसी के दौरे में कैनवास पूरा करते करते ही वो कलाकार हँसते हँसते मर गया .
                                     औरत को पहले पहल तो कुछ भी समझ नहीं आया ,वह उठकर कैनवास के पास आई ,पता नहीं उस कैनवास पर उस सनकी ने बनाया क्या था मतलब की बहुत सारे रंग फैले हुए थे जो देखा जाए तो कुछ भी नहीं था सिवाय उसकी सनक के पर अगर थोड़ी देर रूककर गौर से देखो तो उसमे बहुत कुछ दिखाई पड़ता था मतलब बस थोडा सा ठहरकर देखो तो जैसे की नदी,नाले,पहाड़,ग़ालिब,मीर,मुक्तिबोध,झरना,जंगल,खेत खलिहान,मैदान,उदासी,उबासी,नागार्जुन,गाँव,करेला,रखिया,स्वामीनाथन,झमेला,विनोदकुमार शुक्ल,साईकिल,गाडा,नीम,अमलताश ,आकाश,निर्मल वर्मा,पास पड़ोस,जोश ,खरोश,धूप ,ऊब,नींद,चाँद,नीला,रंग,गेंहू,धान,मेहनत,किसान, मन्नू भंडारी,धरती,घास,सितारे ,कछार,तेंदू,बोइर,मखना,बधाई,कटाई,छंटाई,चटाई,इस्मत चुगताई,मखना,बारी,कुआं , धुना ,धुंध,आजी,लालजी,वान गौग , तीवरा,चना,रामकुमार,लुगाई,दाई ,बढाई,पाश,पलाश,डोंगरी,छोकरी,अम्हा तालाब,शाम,तुलसी,दिया बाती,आम, कलसी,अमरुद,बारी,बथुआ,लाल भाजी,आजी......

हवा की हिनहिनाहट और भूरी आँख वाला कुत्ता


 

                                              Myself
.......और इस तरह  कविता, कहानी और कमरे से बाहर निकलकर वो एक ऐसी जगह पहुँच गया, जंहा दूर दूर तक इतना अकेलापन था की उसके अकेलेपन ने घबराकर आत्महत्या कर ली फिर अचानक ही हवा भी तेज़ होकर बहने लगी . जून की शामों में ऐसी हवा किसी लड़की को अपने देह से चिपटाने जैसा सुख देती है .

- तुझे नहीं लगता की तू बहुत बेकार आदमी है ,और तुझे मर जाना चाहिए .
- हा..हा...हा.....हाँ मै भी अक्सर ऐसा सोचता हूँ, इस ख़याल से ही अपने ऊपर प्यार उमड़ आता है , और फिर सोचने भर ही से आज तक कौन कम्बख्त मरा होगा .
- मुझे तो तेरी शक्ल से ही ऊब होती है ,पता नहीं लोग तुझे किस तरह बर्दाश्त करते होंगे .
- ये जानकर मुझे क्या करना.
       (चुप्पी)
- कहते हैं की भूरी आँख वाले बड़े कमीने होते हैं .
- सो तो मै हूँ .
       (चुप्पी)
- पर माँ की आँखे भी तो भूरी थीं .
- हाँ... पर वो कमीनी नहीं थीं .
- तू ये यकीन से कैसे कह सकता है?
- क्यूंकि पिताजी की आँखों का रंग काला था.
- वाह... इस बात में भला क्या तर्क है?
- मेरी आँखों का रंग भूरा होने में ही क्या तर्क है?
- ह्म्म्म...
        (चुप्पी)
- पर ये बात तो पक्की है की भूरी आँखों वाले कमीने होते हैं .
- हाँ , मेरे कमीने होने में मुझे कोई शक नहीं .
        (चुप्पी)
- तुझे क्या लगता है ,क्या पिताजी को माँ से प्रेम था ?
- पिताजी घुड़सवार थे .
- और माँ?? क्या माँ को उनसे प्यार था??
- माँ को अपनी हिनहिनाहट से प्यार था , शायद उन्हें आदत हो चुकी थी...या फिर..पता नहीं ...
       (चुप्पी)
- फिर प्यार क्या है ?
- प्यार ?? हा हा...हा.........प्यार ,कुतुबमीनार के बिलकुल ऊपर चढ़कर नीचे झाँकने जैसा कुछ है . 
- मतलब ?
- मतलब की डर और रोमांच ,आशा और आशंका ....प्यार का मतलब है हमेशा ऊंचाई के बिलकुल किनारे खड़े रहना, गिरने और नहीं गिरने के बीच घडी के पेंडुलम की तरह डोलते हुए...
       (चुप्पी)
- तू नहीं चढ़ा कभी कुतुबमीनार पर ?
- मै एफिल टावर पर चढ़ना चाहता हूँ .
- इससे क्या फर्क पड़ता है?
- ऊँचाई का फर्क , और फिर मै हमेशा से ही बहुत लालची रहा हूँ . बहुत ऊँचाई से बहुत नीला आसमान और और दूर तक हरी धरती दिखाई देगी. वरना तो कुर्सी ,टेबल के किनारे भी खड़ा रहा जा सकता है पर उसमे वो डर और         रोमांच नहीं .
- क्या बकवास है.
- अबे गधे इसीलिए कहता हूँ ये सब छोड़ और उधर देख ऊपर उन चिड़ियों को .......साले ...कैसे कुत्तों जैसे उड़ते हैं.
- पर चिड़िया तो मादा होती है.
- तू क्या है?
- मै 'तू' हूँ.
- और मै क्या हूँ?
- तू कुत्ता है .
- और नर भी हूँ ?
- हाँ.
-फिर अगर मै चिड़िया हो जाना चाहता हूँ तो इसमें बुराई  क्या है?
- कुछ नहीं .

कुछ नहीं, उसने अपने अकेलेपन की लाश को पीठ पर लादा और वापस कविता ,कहानी और कमरे की तरफ लौट पड़ा ,हवा ने थककर हाथ पाँव पटकने बंद कर दिए थे अब वो बगल से गुज़रती लड़की को सूंघ लेने भर जितना सुख था.  

शुक्रवार, 3 जून 2011

एस्थेटिक सेन्स


                                                                     Artist - Mithu Sen
                                                                                                       


















सर्दियों के बीत जाने पर

मै सर्दी के दिनों को याद करता हूँ

जब होली गुज़र जाती है

तो कहता हूँ -

"होली गुज़र गई "

जब मै लिखता हूँ सेमल

तो सेमल की नंगी शाखों पर

कव्वे पंख फडफडा रहे होते हैं

लगता है मुझमे एस्थेटिक सेन्स की कमी है .

मै कविता की बात नहीं कर रहा


                                     Artist- Salvador Dali
                                                                                                       




















                  १.

जब मै अकेला होता हूँ
तो ऊबता हूँ
और लोगों के साथ होने पर
अकेले होने की कामना करता हूँ,
जब मै कहता हूँ की वो ढोंग था,
तो उसका मतलब सचमुच का ढोंग होता है
और जब मै ये कह रहा होता हूँ
तो ये भी एक ढोंग होता है.
          २.

मै देर तक सोने के लिए शर्मिदा हूँ
मै धूप में खड़ा उदास हूँ
मै इस उदासी को देखकर
 मुस्कुराता हूँ
और दूसरे दिन फिर शर्मिंदा होता हूँ

           ३.

मै कविता की बात नहीं कर रहा हूँ
और पुराने दोस्तों की तो मुझे याद भी नहीं
अब तो उनके चेहरे भी भूलता जा रहा हूँ
और आखिरी कविता मैंने कौन सी पढ़ी थी ?
नहीं जी
मै कविता की बात नहीं कर रहा
और न ही प्रेम की .

खुश चिड़िया दिन (happy bird-day)


मैंने बहुत सोचा
की तुम्हे क्या दूँ
थे कुछ पैसे जेब में ,जैसे नहीं थे
कुछ इच्छाएँ थी मन में
की बरसों बरस खर्चता रहूँ
फिर सोचा कुछ दूँ
जो बचा रहे बिलकुल आखिर तक
और भीतर से कोड़ लाया ये शब्द -
बादल में बहुत  सारा धुंध तैरता रहता है
जैसे रिश्तों में पीड़ा
ढेर सारे भूले किस्से ,बीत गए समय में
घर के पुराने कोने
मेरे और तुम्हारे बेतुके झगडे
फिर बंद घडी की सुइयां
(वही नीली डायल वाली घडी,
जो बाबूजी के हाथ से उतरने के बाद हमारा खिलौना था)
सभी आज ही के दिन समेट लो
आगे भी तो कितने सारे बरस हैं
उन्हें भी तो जीना है.
HAPPY BIRTHDAY PINTU