मंगलवार, 22 मई 2012

भागकर जाने के लिए बहुत सी जगहें थीं


      

                            Artist- Myself
 भागकर जाने के लिए बहुत सी जगहें थीं जंहा कभी भी जाया जा सकता था इसलिए इस बात से कोई तसल्ली नहीं मिलती थी की कंही जाया जा सकता है. तसल्ली के लिए मरे हुए लोग थे और बहुत लंबी दुपहरें, जिसमे सारी शिकायतें झूठी लगती थीं और एक असली बात को स्वीकारने से पहले बहुत सी नकली बातों को फिर-फिर दुहराना होता था....इसीलिए वो अपने कमरे में बैठा रहता था, लिखने की मेज़ पर आधा जागते और आधा सोते हुए. यंहा मई की दुपहरें इतनी चुप होती थीं की कुत्ते भी सड़क पर से बिना भौंके ही गुज़र जाते थे और खिडकी के बाहर खड़े पेड़ हम जिंदा हैं कहने भर के लिए बीच बीच में अपना सर हिला देते थे. बस इतना ही..

बेटा- आप?
बाप- हाँ मै, क्यूँ...हैरान से लग रहे हो?
बेटा- नहीं तो, मैंने कल ही आपको सपने में देखा था.
बाप- मै तुम्हे रोज ही देखता हूँ.
बेटा सपने में?
बाप- नहीं वैसे भी.
बेटा- मै यकीन नहीं करता?
बाप- तुमने कभी नहीं किया.

  सचमुच उसने अपने बाप पर कभी यकीन नहीं किया उसे लगता था की किसी दिन भी वो सोकर उठेगा और वे उसे और उसकी माँ को छोड़कर जा चुके होंगे. और होता भी यही था अचानक एक दिन वो सुबह सोकर उठता और माँ बतातीं की पिताजी पंजाब के किसी शहर चले गए जंहा दूर दूर तक सरसों के खेत होते हैं और शायद कुछ दिनों बाद हम भी वो खेत देखें. खेतों से उसे बचपन के दिन याद आते थे और चिथडे काले कपड़ों में लिपटे बिजूका जो खेत और दोपहर के सन्नाटे में अकेले उदास खड़े रहते थे, जिनसे उसे तब बहुत डर लगता था.

बेटा- बचपन में करता था, तब आप से डरता भी बहुत था.
बाप- सुनकर मुझे खुश होना चाहिए?
बेटा- अपनी खुशी छुपाना आता है आपको.
बाप- पर तुम्हे अपना डर छुपाना नहीं आता, तुम हमेशा से ही डरपोक थे.
बेटा- आप मर चुके हैं और एक भूत की बातों का मै बुरा नहीं मानता वैसे मैंने तो अपने आस पास के जिंदा लोगों की बातों पर भी ध्यान देना बंद कर दिया है..
बाप- हा हा हा... तुम बिलकुल अपनी माँ की तरह हो, हर बात की सफाई देते हो, बोलते हुए भी मिनमिनाते हो.
बेटा- क्या हम कुछ और बात नहीं कर सकते??
बाप- नाटक बंद करो, जिस बात के लिए बुलाया है वही बात कर रहा हूँ...
 
   कौन सी बात?? वो सोचने लगता, पिछली बार हम कहाँ अटक गए थे कंहा रुक गए थे. वो रसोई में चला आता, नल खोलते ही गरम पानी की धार, दरअसल गर्मी के दिनों में दोपहर होते तक छत के ऊपर लगे टंकी का पानी गर्म हो जाता था वो नल से मुह लगाकर पानी पीता और आकर बिस्तर पर लेट जाता. कौन सी बात ?? हाँ मुझे एक सुराही लाना है बाज़ार से ताकि ठंडा पानी पी सकूँ. वो सोचता और ठन्डे पानी से उसे माँ की याद आती. माँ को वो बहुत कम याद करता था, उसने हमेशा अपने पिता के बारे में ही सोचा जब वो जिंदा थे तब भी और उनके मरने के बाद भी. उसे कभी कभी लगता था की वो सचमुच थोडा बहुत अपनी माँ की तरह है. माँ को शायद बहुत सी शिकायतें रही हों पर वो उनके साथ ही मर गई उन्होंने कभी नहीं कहा की उन्हें इस या उस बात से कोई शिकायत है.
  
बाप- उसका बोलना, होना, करना, जीना सब कुछ माफ़ी मांगने जैसा था, मुझे उसके लिए शर्म आती थी.
बेटा- और मुझे आपके लिए अब तक आती है...
(चुप्पी)
वो आप से प्यार करती थीं.

(ये शब्द कहते ही उसे अजीब सी शर्म आई.)

बाप- प्यार??? ज़रा ध्यान से इस शब्द को सुनो, तुम्हे ये बहुत सस्ता सा सुनाई नहीं पडता. अगर तुम्हारे पास है तो तुम बेशर्मी से इससे इंकार कर सकते हो, ये मोडेस्टी है. और अगर नहीं है तो कविताएँ लिखो इस पर, कहानिया बुनो या बेकार ही उन लोगों के लिए रोने का दिखावा करो जो किसी फालतू के दंगों में मर रहे हैं या भूख से आत्महत्या कर रहे हैं...

  दिखावा ?? क्या सचमुच वो सब दिखावा था, वो सोचते हुए मेज़ के पास की अपनी कुर्सी खींचकर बैठ जाता. खिडकी से बाहर देखता, अभी जामुन के फल कच्चे हैं , बारिश आने में वक्त है..
  
बाप- तुम्हे याद है तुम अपने फाइनल ईयर की छुट्टियों में घर आए थे और सारा दिन घर से बाहर शहर की सड़कों पर भटकते थे और फिर रात गए तक छत पर. तुम सारा दिन बौखलाए हुए से रहते थे. जाने से एक रात पहले तुमने अपनी माँ से झगडा भी किया था झगडे की वजह थी मेरे दूसरे औरतों के साथ सम्बन्ध. हाँ.... मैंने भी इसे इसी तरह से समझा ,मेरे दूसरे औरतों के साथ सम्बन्ध….
बेटा- बेकार में भूमिका क्यूँ बाँध रहे हैं,सीधे पॉइंट पर आइए
बाप- ठीक है तो सुनो, मुझसे तुम्हारे नफ़रत की वजह एक बेटे के तौर पर कभी थी ही नहीं, तुम जलते थे उस आदमी से जिसके घर में एक बीवी है जो उस आदमी की हर बात मान लेती है वो पचास की उम्र का है और घर से बाहर वो किसी दूसरी औरत के साथ सोता है उसका एक बेटा है २४ साल का जो कंही बाहर पढता है और जिसमे इतनी हिम्मत नहीं की वो अपने पिता से सामने खड़े रहकर सवाल कर सके क्यूंकि वो सामाजिक सन्दर्भ में कहें तो विनम्र है या शायद कायर है . तुम उस आदमी को देखकर हैरान रह जाते हो तुम समझ नहीं पाते की आखिर तुम मे क्या कमी थी तुम्हे क्यूँ ठुकरा दिया गया आखिर तुम भी उसी आदमी का ही हिस्सा हो जो पचास की उम्र में भी तुम्हारी समझ से कहूँ तो ऐश कर रहा था, तुम चाहते थे उस आदमी के भीतर गिल्ट हो एक खराब पिता और कमीना पति होने के लिए तुम चाहते थे की..
बेटा- बस बहुत हो गया, आप मुझसे इस तरह बात नहीं कर सकते.

 किस तरह की बात?? वो सोचने लगता, वो सोचता बहुत था. क्या माँ भी बहुत सोचती थीं?? नहीं.. चुप रहने का मतलब सोचना नहीं होता. पर वो बहुत सोचता था इसीलिए उसे गुस्सा भी आता था और शर्म भी और बाद में पछतावा भी फिर उसे जलन होती थी उन लोगों से जो नहीं सोचते थे या कम सोचते थे वो सारे लोग उसे अपने पिता की तरह लगते थे जो खुद पर कभी शक नहीं करते थे वे बस मान लेते थे की चलो ये तुम्हारा सच है और ये मेरा वाला सच है अब गाना गाते है.

 बेटा-  हाँ ये सच है, मै थोडा बहुत माँ की तरह हूँ मै प्यार नहीं कर सकता, तब मै बौखलाया हुआ था हताश था शायद वो मेरी उम्र थी अगर मेरी समझ से कंहू तो मै सिर्फ आपकी तरह ऐश करना चाहता था पर मै आपकी तरह भी नहीं होना चाहता था की सब कुछ दिखावा है कहते हुए टीवी बंद कर सकूँ. आपका अकेलापन मुझे डराता था दूसरी तरफ माँ के ठंडेपन से मुझमे ऊब पैदा होती थी.
(चुप्पी)
 जब मुझे उस दूसरी औरत के बारे में पता चला तो सबसे पहले जो ख़याल आया वो ये था की वो देखने में कैसी होगी और सच कंहू तो वो इतनी भी खूबसूरत नहीं थी की मुझे आपसे जलन होती. हाँ ये सच है की तब आपसे कुछ शिकायतें थीं...
बाप- और अब??
बेटा- अब??
बाप- हाँ, इतने सालों बाद अब तुम क्या सोचते हो, अब तो तुम्हारी माँ भी नहीं जो मासूमियत से ये कहे की टीवी पर चलते न्यूज़ रील ने तुम्हे परेशान कर रखा है.
बेटा- आपको याद है आप अक्सर कहते थे की गोली मारने से पहले शिकार की आँखों में देखना होता है इससे उसकी तकलीफ कम हो जाती है और अपने जीने के लिए उम्मीद बंधता है.
बाप- वो मेरे मिलिट्री के अनुभव थे.
बेटा- हाँ पर इस बात को मैंने बहुत बाद में समझा. आपके मरने के बाद. हर बार ऐन वक्त पर मै अपनी आँखे फेर लेता था, अपनी उस आदिम भूख को झुठलाते हुए जिसमे कुछ भी गलत नहीं था...
बाप- कुछ भी गलत नहीं था??
बेटा- मै अकेले रहता हूँ, शादी नहीं की अब तक. हिम्मत भी नहीं होती, आप अपनी नौकरी के लिए शहर बदलते थे मै अपनी सुविधा से या कह लें दुविधा में शहरें बदलता हूँ...
बाप- और औरतें भी.
(लंबी चुप्पी)
बेटा- अपने आखिरी दिनों में माँ सारा सारा दिन आपके स्टडी रूम में बैठी रहती थीं कई बार वंही सोफे पर सो जाती थीं. मुझे उन दिनो समझ में आया की प्यार जैसी कोई चीज़ नहीं होती आदतें होती हैं, ऊब होता है, आप खाते हैं पीते  हैं हगते हैं मुतते हैं काम पर जाते हैं घर आते हैं लोगों से मिलते हैं शहर बदलते हैं और इंतज़ार करते रहते हैं किसका ये बहुत ज्यादा मायने नहीं रखता क्यूंकि आखिर में तो मरना ही है और एक दिन माँ मर गई वंही स्टडी रूम में सोफे पर जंहा आप बैठते थे मुझे लगता है वो बहुत सुकून से मरीं.

  उसे सचमुच ऐसा ही लगता था की माँ बहुत सुकून से मरीं. उसने माँ के अकेलेपन के बारे में कभी नहीं सोचा. कुछ लोग अपने अकेलेपन में इतने पूरे होते हैं की आप उन्हें देखकर रो भी नहीं सकते.


बाप- एक बार हम एक रेस्त्राँ में बैठे थे मै और तुम्हारी माँ. ऐसा बहुत कम ही होता था की हम एक साथ कभी कंही बाहर जाएँ. मैंने उससे पूछा तुम क्या खाओगी आर्डर करो और उसने कहा जो भी आप कहो. मुझे गुस्सा आया और मै उसे वंही छोडकर बाहर चला आया, उसके बाद मै पछताता रहा फिर जब इस बात के लिए मैंने उससे माफ़ी मांगी तो जानते हो उसने क्या कहा..
बेटा- क्या?
बाप- यही की मुझे इस बात को भूल जाना चाहिए और वो मुझसे बिलकुल भी नाराज़ नहीं.
(चुप्पी)
बेटा- ठीक है मै आपको समझ रहा हूँ पर क्या उनके सच कहने से बात बदल जाती.
बाप- हाँ बदल जाती और तुम मुझसे इतनी नफ़रत नहीं करते.
(चुप्पी)
बेटा- मुझे नहीं मालूम था की आप माँ को इतना चाहते थे.
बाप- पर उसे मालूम था, शायद यही उसके नफ़रत की वजह थी.
बेटा- आप उनसे मिले थे ?
बाप- नहीं. पर तुम मिल सकते हो.
बेटा- वो कैसे?
बाप- जैसे मुझसे मिल रहे हो.
बेटा- हम्म
(चुप्पी)
बाप- अब मुझे जाना चाहिए.
बेटा- पर आप तो बहुत पहले ही जा चुके हैं अब जाने के लिए कौन सी जगह है.
बाप- इस कहानी और दोपहर के बाहर बहुत सी दूसरी जगहें हैं जंहा मै जा सकता हूँ.

  दूसरी जगहें हमेशा लौटने के लिए होती हैं इसीलिए आप बार बार लौटकर उस एक दोपहर में आतें हैं जंहा बहुत साल पहले आपने किसी को खो दिया था आप उनसे कहना चाहते थे की आपको भी फर्क पड़ता है. पर ऐसी दुनिया में जंहा किसी बात से कोई फर्क नहीं पड़ता था ऐसा सोचना भी कहानी लिखने जैसा हो जाता था. पर कहानी कभी पूरी नहीं होती थी इसीलिए दुपहरें फिर दुपहरों की तरह ही बार बार लौट आती थीं जिसमे कुत्ते ऊंघते थे और पेड़ बीच बीच में भौंककर फिर सो जाते थे.

मंगलवार, 21 फ़रवरी 2012

गांव, पहाड़ और गमला

              Artist- Robert Rauschenberg
                                                     




















मै पहाड़ पहाड़ चिल्लाते हुए
शहर के सबसे व्यस्त चौराहे पर खड़ा
खुले में मूत रहा हूँ

कभी कभी 
हरे रंग को चेहरे पर पोतकर
मै जंगल हो जाने का भ्रम पालता हूँ
और बालकनी से टेक लगाकर
धूप के बारे में इस तरह बतियाता हूँ
की गांव को गमले की शक्ल में
बदलते हुए पाता हूँ.

और कुछ नहीं, सिर्फ सितम्बर की धूप है

                                 Artist- Uday Singh
                                                                     



















             
            १.
कभी कभी मै तुम्हे इस तरह देखता हूँ
की जैसे पहली बार देख रहा हूँ
इस देखने में पहले जो देखा था
का भूलना भी शामिल होता है
और जब मैंने तुम्हे पहली बार देखा था
तो वो इस तरह का देखना था
की जैसे नहीं देखा हो.

              २.
कोई कोई दिन होता है
जब कोई नहीं होता
ये कोई कोई दिन
बहुत सारे दिनों के बीच का
कोई एक दिन होता है
इस कोई एक दिन में
बहुत सारे दिनों जैसा ही
सब कुछ होता है
हाँ बस मै नहीं होता
और तुम भी नहीं होती
इस कोई एक दिन में सिर्फ हम होते हैं
कुछ इस तरह
जैसे कोई नहीं है.

               ३.
फिर कभी कभी
मै तुम्हे इस तरह भी सोचता हूँ
की जैसे नहीं सोच रहा हूँ
अक्सर नहीं सोच रहा हूँ की सोच
मेरी शामें होती हैं
और जब मै तुम्हे सोच रहा होता हूँ
तो कुछ इस तरह
मानो नींद में हूँ
दरअसल
नींद में हूँ की सोच
सितम्बर की धूप है
जो आजकल बेशर्मों की तरह
दिन भर गुनगुनाती रहती है.  

धूप, ऊब और दिल्ली

                                                         Artist- Mario Sironi
                                                                             



















अब वो जानता  है की कविता
घेराव में
किसी बौखलाए हुए आदमी का
संक्षिप्त एकालाप है.
-          धूमिल

धूप, ऊब और दिल्ली
किसी काली बिल्ली की तरह घूरती हुई
मेरे भीतर छप्प से कूद जाती है
मै बिल्ली के चमड़े को खींचकर 
रात की तरह
तानता हूँ
जानता हूँ
की सहने को हमेशा बहुत होता है
और कहने को बहुत कम

फिर भी
कभी कभी मै कविता को
किसी रंडी की तरह इस्तेमाल करते हुए
खुद से छुपकर उसके पास जाता हूँ
और झड़ने के बाद
वापस लौट आता हूँ
शब्द किसी दलाल की तरह मुझ पर अकड़ते हैं
और मेरी बेशर्मी पर झगड़ते हैं

मुझे राम और बाबर की औलादों से ईर्ष्या है
कहते हुए 
मै अपना सर किसी शुतुरमुर्ग की तरह
ज़मीन में धंसा देता हूँ
इसे एक चालाक आदमी के शर्म की तरह आंको
जो समय को च्विंगम की तरह चभ्लाता है
और बिस्तर पर सारा दिन
किसी सूअर की तरह लोटते हुए इतराता है

बावजूद इसके
मै अभी भी कह सकता हूँ
की कविता मेरा शोकगीत नहीं
बल्कि दुनिया को शब्दों में
भरपूर जी लेने की कोशिश है.

देखो मै हूँ


क्या दुनिया तुम्हारे पास आकर कहती है , देखो मै हूँ.
-          रमण महर्षि

                    Artist- Katsushika Hokusai
                               









                                                                                                                            




                 




           १.

रात में नींद नहीं आती
और मै पहाड़ों को याद भी नहीं कर रहा होता
फिर लिखते हुए अचानक
शब्दों के बीच कंही पहाड़ चमक जाता है
और तब सचमुच
मै पहाड़ों को याद नहीं कर रहा होता.
     
           २.

कभी कभी मन करता है
किसी बहुत ऊंचे पहाड़ पर चढ़ जाऊं
चीखूँ चिल्लाऊं
वरना तो यंहां सभी गूंगे और बहरे हैं
या मेरी तरह नपुंसक
जो किसी पहाड़ पर चढ़कर चीखना चाहते हैं.

           ३.

मैंने लिखने के लिए तो लिख दिया पहाड़
पर जब मुह खोला कहने के लिए पहाड़
तो लगा नहीं की कह रहा हूँ पहाड़
जबकि कंहूँ पहाड़
तो उसका मतलब सिर्फ पहाड़ होना चाहिए.

सोमवार, 20 फ़रवरी 2012

ये कौन सा रंग है जो इतना मीठा है





















कुछ मीठा क्यूँ नहीं लिखते
कहकर वो आदमी उबासियाँ लेने लगा
मुझे गुस्सा आया और मैंने झपटकर
उसके चेहरे से
पिछली रात का जागना नोच लिया
उसकी नंगी आँखों में अंतहीन सूनापन था
और उसके होंठ
हमेशा झूठ मूठ का मुस्कुराते  रहने से
थोड़े विकृत हो गए थे
उसने फिर कुछ कहने की कोशिश की
और उसके मुह से
ऊब और अकेलेपन का
मिलाजुला भभका बाहर आया
मैंने घबराहट में लगभग चीखते हुए कहा-
मै तो हमेशा ही मीठा लिखना चाहता हूँ
पर उसने सुना नहीं
उसके कानों पर
हजारों काली रातों जैसे
चींटियाँ चिपकी हुई थीं
जो धीरे धीरे उसके कानों को कुतर रही थीं
मैंने हडबडाहट में गलती से
(या शायद जानबूझकर)
उसके चेहरे पर लाल रंग पोत दिया
इस अचानक से हमले ने उसे स्तब्ध कर दिया
(पर मै सिर्फ मदद करना चाहता था,उसकी या अपनी पता नहीं)
उसने थोडा ठहरकर जीभ बाहर निकाली
और अपने चेहरे पर फिराया
फिर मुझसे मुस्कुराते हुए पूछा
ये कौन सा रंग है जो इतना मीठा है
अब स्तब्ध रह जाने की बारी मेरी थी. 

कविता मुस्कुराती है

                                                    Artist- Raj Kumar Sahni
                                                                       












किसी के कान में
फुसफुसाकर कहे गए शब्द हों
या अधूरी नींद की बुदबुदाहट
भीड़ में टहलती चुप्पियाँ हों
या दीवारों पर सर पटकते अवसाद
कटे- फिटे
थके- हारे
खून और मवाद में लिथड़े शब्द ही क्यूँ न हों
कविता सबको पनाह देती है
और अगर आखिरी बार का रोना याद हो
तो ये दिन इतने भी बुरे नहीं- कहकर
कविता मुस्कुराती है.