मंगलवार, 21 फ़रवरी 2012
और कुछ नहीं, सिर्फ सितम्बर की धूप है
Artist- Uday Singh |
१.
कभी कभी मै तुम्हे इस तरह देखता हूँ
की जैसे पहली बार देख रहा हूँ
इस देखने में पहले जो देखा था
का भूलना भी शामिल होता है
और जब मैंने तुम्हे पहली बार देखा था
तो वो इस तरह का देखना था
की जैसे नहीं देखा हो.
२.
कोई कोई दिन होता है
जब कोई नहीं होता
ये कोई कोई दिन
बहुत सारे दिनों के बीच का
कोई एक दिन होता है
इस कोई एक दिन में
बहुत सारे दिनों जैसा ही
सब कुछ होता है
हाँ बस मै नहीं होता
और तुम भी नहीं होती
इस कोई एक दिन में सिर्फ हम होते हैं
कुछ इस तरह
जैसे कोई नहीं है.
३.
फिर कभी कभी
मै तुम्हे इस तरह भी सोचता हूँ
की जैसे नहीं सोच रहा हूँ
अक्सर नहीं सोच रहा हूँ की सोच
मेरी शामें होती हैं
और जब मै तुम्हे सोच रहा होता हूँ
तो कुछ इस तरह
मानो नींद में हूँ
दरअसल
नींद में हूँ की सोच
सितम्बर की धूप है
जो आजकल बेशर्मों की तरह
दिन भर गुनगुनाती रहती है.
धूप, ऊब और दिल्ली
![]() |
Artist- Mario Sironi |
अब वो जानता है की कविता
घेराव में
किसी बौखलाए हुए आदमी का
संक्षिप्त एकालाप है.
- धूमिल
धूप, ऊब और दिल्ली
किसी काली बिल्ली की तरह घूरती हुई
मेरे भीतर छप्प से कूद जाती है
मै बिल्ली के चमड़े को खींचकर
रात की तरह
रात की तरह
तानता हूँ
जानता हूँ
की सहने को हमेशा बहुत होता है
और कहने को बहुत कम
फिर भी
कभी कभी मै कविता को
किसी रंडी की तरह इस्तेमाल करते हुए
खुद से छुपकर उसके पास जाता हूँ
और झड़ने के बाद
वापस लौट आता हूँ
शब्द किसी दलाल की तरह मुझ पर अकड़ते हैं
और मेरी बेशर्मी पर झगड़ते हैं
मुझे राम और बाबर की औलादों से ईर्ष्या है
कहते हुए
मै अपना सर किसी शुतुरमुर्ग की तरह
मै अपना सर किसी शुतुरमुर्ग की तरह
ज़मीन में धंसा देता हूँ
इसे एक चालाक आदमी के शर्म की तरह आंको
जो समय को च्विंगम की तरह चभ्लाता है
और बिस्तर पर सारा दिन
किसी सूअर की तरह लोटते हुए इतराता है
बावजूद इसके
मै अभी भी कह सकता हूँ
की कविता मेरा शोकगीत नहीं
बल्कि दुनिया को शब्दों में
भरपूर जी लेने की कोशिश है.
देखो मै हूँ
क्या दुनिया तुम्हारे पास आकर कहती है , देखो मै हूँ.
- रमण महर्षि
रात में नींद नहीं आती
और मै पहाड़ों को याद भी नहीं कर रहा होता
फिर लिखते हुए अचानक
शब्दों के बीच कंही पहाड़ चमक जाता है
और तब सचमुच
मै पहाड़ों को याद नहीं कर रहा होता.
२.
कभी कभी मन करता है
किसी बहुत ऊंचे पहाड़ पर चढ़ जाऊं
चीखूँ चिल्लाऊं
वरना तो यंहां सभी गूंगे और बहरे हैं
या मेरी तरह नपुंसक
जो किसी पहाड़ पर चढ़कर चीखना चाहते हैं.
३.
मैंने लिखने के लिए तो लिख दिया पहाड़
पर जब मुह खोला कहने के लिए पहाड़
तो लगा नहीं की कह रहा हूँ पहाड़
जबकि कंहूँ पहाड़
तो उसका मतलब सिर्फ पहाड़ होना चाहिए.
सोमवार, 20 फ़रवरी 2012
ये कौन सा रंग है जो इतना मीठा है
“कुछ मीठा क्यूँ नहीं लिखते”
कहकर वो आदमी उबासियाँ लेने लगा
मुझे गुस्सा आया और मैंने झपटकर
उसके चेहरे से
पिछली रात का जागना नोच लिया
उसकी नंगी आँखों में अंतहीन सूनापन था
और उसके होंठ
हमेशा झूठ मूठ का मुस्कुराते रहने से
थोड़े विकृत हो गए थे
उसने फिर कुछ कहने की कोशिश की
और उसके मुह से
ऊब और अकेलेपन का
मिलाजुला भभका बाहर आया
मैंने घबराहट में लगभग चीखते हुए कहा-
“मै तो हमेशा ही मीठा लिखना चाहता हूँ”
पर उसने सुना नहीं
उसके कानों पर
हजारों काली रातों जैसे
चींटियाँ चिपकी हुई थीं
जो धीरे धीरे उसके कानों को कुतर रही थीं
मैंने हडबडाहट में गलती से
(या शायद जानबूझकर)
उसके चेहरे पर लाल रंग पोत दिया
इस अचानक से हमले ने उसे स्तब्ध कर दिया
(पर मै सिर्फ मदद करना चाहता था,उसकी या अपनी पता नहीं)
उसने थोडा ठहरकर जीभ बाहर निकाली
और अपने चेहरे पर फिराया
फिर मुझसे मुस्कुराते हुए पूछा
“ये कौन सा रंग है जो इतना मीठा है”
अब स्तब्ध रह जाने की बारी मेरी थी.
कविता मुस्कुराती है
![]() |
Artist- Raj Kumar Sahni |
किसी के कान में
फुसफुसाकर कहे गए शब्द हों
या अधूरी नींद की बुदबुदाहट
भीड़ में टहलती चुप्पियाँ हों
या दीवारों पर सर पटकते अवसाद
कटे- फिटे
थके- हारे
खून और मवाद में लिथड़े शब्द ही क्यूँ न हों
कविता सबको पनाह देती है
“और अगर आखिरी बार का रोना याद हो
तो ये दिन इतने भी बुरे नहीं”- कहकर
कविता मुस्कुराती है.
जबकि ये शहर हमेशा सपनों में होता है
माँ
मै तो अपने बहुत मामूली दुखों से ही
घबरा गया हूँ
तुमने कैसे सहा
ये पहाड़ जैसा दुःख
जो हमेशा तुम्हे मिला
और फिर भी हो तुम आशावान.
तुम्हारी आवाज़ मुझे बारिश की याद दिलाती है
जिसे सुनकर मै खुद को
धान के हरहराते खेतों के बीच पाता हूँ
आखिर तुम्हारे भीतर
इतना हरापन कहाँ से आया?
हर बार तुम्हारे शब्दों के अनगढ़पने से ही
मैंने अपने लिए नई भाषा पाई है
शब्दों से परे
जिसमे चूल्हे से उठती धुंए की गंध होती है
और छत पर सूखते गेंहू की चमक.
जानती हो माँ
ये शहर बड़ा अजीब है
जहाँ मै रहता हूँ
न मै इसकी भाषा समझता हूँ और न चलन
तुम्ही देखना
कैसे मै दिन ब दिन घुन्ना होता जा रहा हूँ
हर बार जब चेहरे पर हाथ फेरता हूँ
तो कुछ नया सा लगता है.
माँ
तुम कभी मत आना इस शहर
मै ही लौटूंगा हर बार
जानता हूँ
तुम्हारी नींद बहुत कच्ची है
हल्का सा खटका
और तुम जाग पड़ती हो
जबकि ये शहर हमेशा सपनों में होता है.
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