मंगलवार, 21 फ़रवरी 2012

गांव, पहाड़ और गमला

              Artist- Robert Rauschenberg
                                                     




















मै पहाड़ पहाड़ चिल्लाते हुए
शहर के सबसे व्यस्त चौराहे पर खड़ा
खुले में मूत रहा हूँ

कभी कभी 
हरे रंग को चेहरे पर पोतकर
मै जंगल हो जाने का भ्रम पालता हूँ
और बालकनी से टेक लगाकर
धूप के बारे में इस तरह बतियाता हूँ
की गांव को गमले की शक्ल में
बदलते हुए पाता हूँ.

और कुछ नहीं, सिर्फ सितम्बर की धूप है

                                 Artist- Uday Singh
                                                                     



















             
            १.
कभी कभी मै तुम्हे इस तरह देखता हूँ
की जैसे पहली बार देख रहा हूँ
इस देखने में पहले जो देखा था
का भूलना भी शामिल होता है
और जब मैंने तुम्हे पहली बार देखा था
तो वो इस तरह का देखना था
की जैसे नहीं देखा हो.

              २.
कोई कोई दिन होता है
जब कोई नहीं होता
ये कोई कोई दिन
बहुत सारे दिनों के बीच का
कोई एक दिन होता है
इस कोई एक दिन में
बहुत सारे दिनों जैसा ही
सब कुछ होता है
हाँ बस मै नहीं होता
और तुम भी नहीं होती
इस कोई एक दिन में सिर्फ हम होते हैं
कुछ इस तरह
जैसे कोई नहीं है.

               ३.
फिर कभी कभी
मै तुम्हे इस तरह भी सोचता हूँ
की जैसे नहीं सोच रहा हूँ
अक्सर नहीं सोच रहा हूँ की सोच
मेरी शामें होती हैं
और जब मै तुम्हे सोच रहा होता हूँ
तो कुछ इस तरह
मानो नींद में हूँ
दरअसल
नींद में हूँ की सोच
सितम्बर की धूप है
जो आजकल बेशर्मों की तरह
दिन भर गुनगुनाती रहती है.  

धूप, ऊब और दिल्ली

                                                         Artist- Mario Sironi
                                                                             



















अब वो जानता  है की कविता
घेराव में
किसी बौखलाए हुए आदमी का
संक्षिप्त एकालाप है.
-          धूमिल

धूप, ऊब और दिल्ली
किसी काली बिल्ली की तरह घूरती हुई
मेरे भीतर छप्प से कूद जाती है
मै बिल्ली के चमड़े को खींचकर 
रात की तरह
तानता हूँ
जानता हूँ
की सहने को हमेशा बहुत होता है
और कहने को बहुत कम

फिर भी
कभी कभी मै कविता को
किसी रंडी की तरह इस्तेमाल करते हुए
खुद से छुपकर उसके पास जाता हूँ
और झड़ने के बाद
वापस लौट आता हूँ
शब्द किसी दलाल की तरह मुझ पर अकड़ते हैं
और मेरी बेशर्मी पर झगड़ते हैं

मुझे राम और बाबर की औलादों से ईर्ष्या है
कहते हुए 
मै अपना सर किसी शुतुरमुर्ग की तरह
ज़मीन में धंसा देता हूँ
इसे एक चालाक आदमी के शर्म की तरह आंको
जो समय को च्विंगम की तरह चभ्लाता है
और बिस्तर पर सारा दिन
किसी सूअर की तरह लोटते हुए इतराता है

बावजूद इसके
मै अभी भी कह सकता हूँ
की कविता मेरा शोकगीत नहीं
बल्कि दुनिया को शब्दों में
भरपूर जी लेने की कोशिश है.

देखो मै हूँ


क्या दुनिया तुम्हारे पास आकर कहती है , देखो मै हूँ.
-          रमण महर्षि

                    Artist- Katsushika Hokusai
                               









                                                                                                                            




                 




           १.

रात में नींद नहीं आती
और मै पहाड़ों को याद भी नहीं कर रहा होता
फिर लिखते हुए अचानक
शब्दों के बीच कंही पहाड़ चमक जाता है
और तब सचमुच
मै पहाड़ों को याद नहीं कर रहा होता.
     
           २.

कभी कभी मन करता है
किसी बहुत ऊंचे पहाड़ पर चढ़ जाऊं
चीखूँ चिल्लाऊं
वरना तो यंहां सभी गूंगे और बहरे हैं
या मेरी तरह नपुंसक
जो किसी पहाड़ पर चढ़कर चीखना चाहते हैं.

           ३.

मैंने लिखने के लिए तो लिख दिया पहाड़
पर जब मुह खोला कहने के लिए पहाड़
तो लगा नहीं की कह रहा हूँ पहाड़
जबकि कंहूँ पहाड़
तो उसका मतलब सिर्फ पहाड़ होना चाहिए.

सोमवार, 20 फ़रवरी 2012

ये कौन सा रंग है जो इतना मीठा है





















कुछ मीठा क्यूँ नहीं लिखते
कहकर वो आदमी उबासियाँ लेने लगा
मुझे गुस्सा आया और मैंने झपटकर
उसके चेहरे से
पिछली रात का जागना नोच लिया
उसकी नंगी आँखों में अंतहीन सूनापन था
और उसके होंठ
हमेशा झूठ मूठ का मुस्कुराते  रहने से
थोड़े विकृत हो गए थे
उसने फिर कुछ कहने की कोशिश की
और उसके मुह से
ऊब और अकेलेपन का
मिलाजुला भभका बाहर आया
मैंने घबराहट में लगभग चीखते हुए कहा-
मै तो हमेशा ही मीठा लिखना चाहता हूँ
पर उसने सुना नहीं
उसके कानों पर
हजारों काली रातों जैसे
चींटियाँ चिपकी हुई थीं
जो धीरे धीरे उसके कानों को कुतर रही थीं
मैंने हडबडाहट में गलती से
(या शायद जानबूझकर)
उसके चेहरे पर लाल रंग पोत दिया
इस अचानक से हमले ने उसे स्तब्ध कर दिया
(पर मै सिर्फ मदद करना चाहता था,उसकी या अपनी पता नहीं)
उसने थोडा ठहरकर जीभ बाहर निकाली
और अपने चेहरे पर फिराया
फिर मुझसे मुस्कुराते हुए पूछा
ये कौन सा रंग है जो इतना मीठा है
अब स्तब्ध रह जाने की बारी मेरी थी. 

कविता मुस्कुराती है

                                                    Artist- Raj Kumar Sahni
                                                                       












किसी के कान में
फुसफुसाकर कहे गए शब्द हों
या अधूरी नींद की बुदबुदाहट
भीड़ में टहलती चुप्पियाँ हों
या दीवारों पर सर पटकते अवसाद
कटे- फिटे
थके- हारे
खून और मवाद में लिथड़े शब्द ही क्यूँ न हों
कविता सबको पनाह देती है
और अगर आखिरी बार का रोना याद हो
तो ये दिन इतने भी बुरे नहीं- कहकर
कविता मुस्कुराती है.

जबकि ये शहर हमेशा सपनों में होता है


                                                     Artist- Raj Kumar Sahni





















माँ
मै तो अपने बहुत मामूली दुखों से ही
घबरा गया हूँ
तुमने कैसे सहा
ये पहाड़ जैसा दुःख
जो हमेशा तुम्हे मिला
और फिर भी हो तुम आशावान.

तुम्हारी आवाज़ मुझे बारिश की याद दिलाती है
जिसे सुनकर मै खुद को
धान के हरहराते खेतों के बीच पाता हूँ
आखिर तुम्हारे भीतर
इतना हरापन कहाँ से आया?

हर बार तुम्हारे शब्दों के अनगढ़पने से ही
मैंने अपने लिए नई भाषा पाई है
शब्दों से परे
जिसमे चूल्हे से उठती धुंए की गंध होती है
और छत पर सूखते गेंहू की चमक.

जानती हो माँ
ये शहर बड़ा अजीब है
जहाँ मै रहता हूँ
न मै इसकी भाषा समझता हूँ और न चलन
तुम्ही देखना
कैसे मै दिन ब दिन घुन्ना होता जा रहा हूँ
हर बार जब चेहरे पर हाथ फेरता हूँ
तो कुछ नया सा लगता है.

माँ
तुम कभी मत आना इस शहर
मै ही लौटूंगा हर बार
जानता हूँ  
तुम्हारी नींद बहुत कच्ची है
हल्का सा खटका
और तुम जाग पड़ती हो
जबकि ये शहर हमेशा सपनों में होता है.

राजा के मूंछों पर बहार आई है

                                               Artist- Louise Bourgeois
                                                                               
















तुम्हे कुतिया कहने के लिए
मुझे कविता में कुतिया लिखना था
सिर्फ अच्छा अच्छा सोचूंगा
सोचते हुए
मै उस कहानियों वाले राजा के बगल से गुज़रता हूँ
जो अपने मूंछों के बाल गिनवाने को नौकर रखता था
पर बात यंही खत्म नहीं होती
और दृश्य में तुम भी थी
और मै भी था
और एक लंगड़ा आदमी
जो तुमसे बात करते हुए
मेरी हकलाहट से पैदा हुआ था
इस हकलाहट को मै कविता कहना चाहता था
पर दृश्य में तुम भी थी
तो तुम्हे कविता कहते हुए
अपने लिए कुत्ता लिखता हूँ
बोले तो इस बसंत में हम मिलकर
फिर सूखे पत्ते जनेंगे
जबकि राजा के मूंछों पर बहार आई है.

रविवार, 19 फ़रवरी 2012

धत्त तेरी की....जानेमन

                    Artist- Philip Wilson Steer
                                


















पूरी कहानी में
जो सबसे मज़ेदार बात थी
उसे कभी न समझते हुए
हमें दस साल बाद हंसना था
दरअसल ये एक ऐसा खेल था
जिसमे कहानी कहते हुए
कविता लिखनी होती थी
और भूलना होता था
ताकि फिर से
कोई नई कहानी लिखी जा सके
जिसमे सबसे मजेदार बात को
कभी न समझते हुए
हमें बार बार यही कहना होता था
कि धत्त तेरी की.... 

गुरुवार, 2 फ़रवरी 2012

इतनी खुशी थी


                                                    Artist- Jan Sluyters
                                          
























     १.
इतनी खुशी थी
कि होंठ मुस्कुराकर फैलते हुए
चेहरे से बाहर नहीं निकल जाते थे
बस यही गनीमत.

    २.
हँसते हँसते
गुब्बारे का दम फूल गया
इतनी खुशी थी
कि फूलते फूलते
गुब्बारा फट पड़ा.

   ३.
जंगल तो बस अब कहने भर को था
फिर भी
जब भी कंही कोई नया अंकुर फूटता
तब पूरा जंगल
हर हर हर करके हरहराता था
इतनी खुशी थी.